२०८२ मंसिर ७, आईतवार
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स्तम्भ
याम–आयाम
सँगसँगै भएर पनि सकिरहेको छुइनँ
...र शलभ
बद्री अधिकारी
याम–आयाम
किनकिन ? मलाई यस्तो लागिरहेछ !
कही अनकही
“मोरा देहिया सहलो ना जाय”
निबन्ध
आवाज हराएको समय
निबन्ध
सडक
कही अनकही
‘वीराँ है मयकदा, खुमो सागर उदास हैं, तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के’ फैज
निबन्ध
तिम्रो प्रेमका नाममा
कही अनकही
जिन्दगी की गति धीमी जरूर हो गई है किन्तु घरों की दीवारें हँसने लगी हैं
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