लोक गीतों में किसी भी समाज की आत्मा बसती है । समाज का वास्तविक रुप अगर देखना हो तो लोकगीतों की दुनिया में जाइए वहाँ आपको उसके दर्शन हो जाएँगे । माँ अक्सर भोजपुरी गीत गाया करती हैं इसलिए एक लगाव सा रहा लोकगीतों से । जैसे जैसे इससे परिचित हुई जेहन में कई सवाल भी उठते रहे । बेटियों से सम्बन्धित गीत जब भी सुनती हूँ इसकी मार्मिकता विचलित करती है । ग्रामीण परिवेश में आज भी शादी ब्याह के अवसर पर महिलाएँ गीत गाती हैं । शहरों में तो यह देखने को नहीं मिलता । शादी के गीतों में गोसाई. गीत, झूमर, हल्दी, कन्यादान, कोहबर, समदावन आदि गीत आते हैं । यों तो लोकगीतों में मानव जीवन से जुड़े सभी संस्कार के गीत आते हैं । पर आज मै. यहाँ उन गीतों की चर्चा करने जा रही हूँ जिसमें बेटियों की चर्चा है । जहाँ बेटी होने का दर्द मिलता है ।
कहते हैं गीतों में मनोभावों की, मूल्यों की, मान्यताओं की अभिव्यकित होती है इसलिए हम कह सकते हैं कि उसमें सच को जगह मिलती है । आइए एक दृष्टि उन गीतों पर डालें जहाँ किसी ना किसी रूप में बेटियाँ मौजूद हैं —
“जाहि दिन आगे बेटी तोहें अवतरलें
ताहि दिन भेल विषमाद
चिन्ता निन्द हरित भेल बेटी,
थिर नहीं रहल गियान ।”
यानि बेटी ने जन्म क्या लिया, विषाद ने अपने पैर फैला दिए । चिन्ता ने घर कर लिया, आँखों से नी.द खो गई । न तो चित्त शांत है और न ही कोई सुध बची है । और यहीं बेटे ने जन्म लिया होता तो क्या होता, देखिए—
“पुत्र जँ होइतय बेटी, बाजैत बधावा, धिया के जनम विषमाद ।”
अर्थात् पुत्र होता तो घर में खुशियाँ छा जातीं, मंगल गीत गाए जाते । जब बेटी इस विभेद को महसूस करती है तो पूछती है—
“कथि लय आहे आमा धिया के जनम देत
खइतहुँ मरीच पचास
मरीच झोंक सँ धिया दुरि जइतथि
जाइत धिया क संताप ।”
बेटी कहती है कि अगर तुमने गर्भावस्था में मरीच खा लिया होता तो आज तुम्हें संताप नहीं करना पड़ता क्योंकि तब मेरा जन्म ही नहीं होता ।
वो पूछती है कि—
“किए जानि आहे आमा ओद्रम राखल
किए जानि कएलहु दुलार
कथी लेल आहे बाबा पोखरी खुनाओल
कथी लय करै छी कन्यादान
और तब उसे जवाब मिलता है कि —
बेटा जानि आहे धिया ओद्र में राखल
नाम लेल आहे धिया पोखरी खुनाओल
धरम लेल करै छी कन्यादान ।”
(किस लिए तुमने मुझे गर्भ में रखा क्यों प्यार किया ? किसलिए तुमने पोखर खुदवाया और क्यों करते हैं कन्यादान । बेटा समझ कर कोख में रखा, नाम के लिए पोखर खुदवाया और धर्म के लिए कन्यादान किया ।)
और जब उसे यह पता चलता है कि बेटे के भ्रम ने उसे जन्म मिला है तब वह कह उठती है—
“दस पाँच आहे बाबा पोखरी खुनइतहुँ
रहि जाइत नाम निशान
बहियाँ पकडि़ धिया कुईंया में फेकितों
छुटि जइतय धिया के जँजाल ।”
इससे तो अच्छा होता दो चार पोखर ही खुनवा लिया होता और मुझे किसी कुएँ में फेक दिया होता और मुझसे मुक्त हो जाते ।
बेटियों के नन्हे पाँव ज्यों ज्यों चलना सीखते हैं, त्यों त्यों उनके साथ नसीहतें भी चलती हैं । उन्हें यह बताया जाता है कि यह आँगन तुम्हारा नहीं है । धैर्य और सहनशीलता के पाठ पढाए जाते हैं—
“नहि हम सिखलेहुँ अम्मा घर शुभ अरिपन
नहिं हम सिखलेहुँ रसोई
सासु ननदि हे अम्मा हमरो गरियौथिन
मोरा देहिया सहलो ना जाय ।”
एक डर उसके साथ है कि उसे तो कुछ आता नहीं ऐसे में ससुराल में उसे गालियाँ और उलाहने मिलेंगे और तभी उसे कहा जाता है कि तुम सब सीख लो और जब तुमहें सास ननद के ताने और गालियाँ मिले तो उसे अपने आँचल को फैला स्वीकार कर लेना ।
एक और गीत देखिए, यहाँ बेटी पूछती है अपने पिता से कि—
“बाबा कवन नगर जुआ खेलि एैलौं
हमरा के हारि अएैलौं ना
बाबा बेटा पुतहु हारि अइतौं
हमरा बचबितहौं ना”
(मुझे आप किस जगह हार आए । हारना था तो बेटा बहु को हारते मुझे तो बचा लेते )
तो पिता का जवाब है—
“बेटी , बेटा पुतोहु घर के लक्ष्मी छथि
अहुँ त जँजाल भेलौं न
बाबा गाय महीस अहाँ हारि अबतहुँ
हमरो बाचय लितहुँ ना
बेटी गाय महीस खुट्टा के रे लक्ष्मी छथि
अहुँ त जाजाल भेलौ ना
बाबा जानिते छलहौं बेटी जंजाल होइ हैं
कथी ल जनम देलौं ना ।”
क्या नियति है । बेटे बहु, गाय भैंस सभी प्रिय हैं पर बेटी जंजाल है । यह है आधी आबादी का एक पहलु । अगर यह सच ना होता तो आज भ्रूण हत्या ना होती, जवान बेटियाँ आत्महत्या ना करती, बेटियाँ बोझ नहीं होती अगर समाज में दहेज नाम की कुरीति नहीं होती । ऐसा नहीं है कि समाज में बदलाव नहीं आया है पर यह बदलाव अपेक्षित नहीं है । ऐसी कितनी ही बातें हैं जो लोकगीतों में वर्णित हैं । ये हमें हमारी सामाजिक स्थिति का आईना दिखाते हैं, हमारी खोखली मान्यताओं को दर्शाते हैं और वास्तविकता से परिचित करवाते हैं ।
(डॉ. श्वेता दीप्ति त्रिभुवन विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की उप–प्राध्यापक हैँ ।)
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