मानव जीवन को अन्य सभी जीवों से श्रेष्ठ माना गया है । मनुष्य रूप में जन्म होना पूर्व जन्मों के पुण्य का फल बताया जाता है । मानव जीवन को मिले अनमोल उपहारों में से एक अनमोल उपहार है- ’रिश्ते’ । रिश्ते नाते ही मनुष्य को अन्य प्राणियों से भिन्न बनाते हैं । रिश्ते अन्य जीवों के भी होते हैं परंतु अत्यंत सीमित एवं संकुचित । पक्षियों एवं अन्य पशुओं के रिश्ते सिर्फ जन्म देने वाले से अत्यंत सीमित समय के लिए होते हैं । समय विशेष के बीत जाने के बाद उनके संबंध मृत प्राय हो जाते हैं ।
मनुष्य विवेकशील प्राणी है । उसे रिश्ते नातों की परख होती है और वह लंबे समय तक रिश्तों को निभाना चाहता है । वास्तव में मनुष्य को मिले रिश्ते दो प्रकार के होते हैं- एक उसे जन्म से प्राप्त होता है और दूसरा वह अपने व्यवहार से जीवनक्रम में निरंतर बनाता रहता है । दोनों में से कौन रिश्ते ज्यादा विश्वसनीय होते हैं यह तो निश्चित रूप से आत्ममंथन का विषय है ।जितने लोग, उतनी सोच, सबके अलग अलग । परंतु मेरा यह मानना है कि ’रिश्ते आपसी समझ, समर्पण, सूझबूझ, करुणा एवं भावनाओं का परस्पर आदान- प्रदान है ।’ यह परस्पर शब्द अत्यंत विशद है, कोई छोटा शब्द नहीं । जहाँ ’परस्पर’की समझ होती है, वहाँ रिश्ते लंबे समय तक दिनों दिन मजबूत होते हुए निभते चले जाते हैं और जहाँ ’परस्पर’ शब्दकी समझ नहीं होती, वहाँ रिश्तों को निभाये जाने की विवशता होती है । रिश्तों को स्वार्थ वश निभाये जाने की सोच रिश्तों के धागे को कमज़ोर करती जाती है और रिश्ते बिखर जाते हैं । स्वार्थ एक तरफा हो या दोनों तरफ से हो रिश्तों के टूटने का दर्द, दिनों दिन टूटते रहने का दर्द रिश्तों के दोनों किनारों पर मौजूद व्यक्ति को चोटिल करता हुआ बुरी तरह मानसिक रूप से घायल कर जाता है और जीवन भर का यह दर्द कभी भी कम नहीं होता और हर समय-असमयह में चोट पहुंचाता रहता है ।
हर रिश्ते की अपनी मर्यादा, निर्मलता एवं संवेदनशीलता होती है । इनपर चोट लगते ही रिश्ते बिखरने शुरू हो जाते हैं । कई बार चोट लगने पर भी लोग भारी मन से रिश्ते निभाते जाते हैं, आक्रोश भीतर दबा रहता है जो अचानक विस्फोटक हो जाता है ।
आजकल एकल परिवार का प्रचलन काफी ज्यादा है । लोग सिर्फ अपने बच्चों के साथ रहना चाहते हैं । पतिपत्नी और बच्चे, बस इसमें ही लोग अपनी पूरी दुनिया देखते हैं, सुकून तलाश करते हैं । एकल परिवार की प्रथा संयुक्त परिवार के दिनों दिन विषैले होते जाने का गंभीर परिणाम है । पुराने समय मे लोग संयुक्त परिवार में ही रहते थे, घर में सारे रिश्ते नाते मिल जाते थे–दादा, दादी, चाचा, चाची, बुआ, मामा, मामीआदि । कालक्रम में परिस्थितियाँ बदलती चली गयीं और घर के भीतर ही छल- कपट का जन्म होने लगा, रिश्ते टूटने लगे, आत्मा घायल होने लगी । इतने सारे रिश्तेदारों से भरा हुआ घर भी सूना होने लगा । लोग भीड़ में भी अकेले रहने लगे । सभी के ताने उलाहने सुनते सुनते लोग त्रस्त होने लगे । बहुएँ जरूरत से ज्यादा प्रताडि़त की जाने लगीं । निरंतर आत्महत्या एवं हत्या का दौर चल पड़ा । घर से सुकून ही चला गया और शांतिकी तलाश मेंं सभी इधर उधर भटकने लगे । घर से मानो लक्ष्मी ही रुष्ट हो गई । लोग शांतिकी तलाश में अपने घर में सीमित रहने लगे संयुक्त परिवार से दूर लोग माता- पिता, पुत्र- पुत्री में अपनी पूरी दुनिया ढूंढने लगे और यहीं से परिवार बिल्कुल सीमित सा हो गया ।
प्रत्येक संबंधकी अपनी सीमाएँ, परि सीमाएँ होती हैं । मातापिता का बात बात पर रोकना, टोकना बच्चों को बुरी परिस्थितियों से बचाता तो है परंतु इन बातों का बहुत ज्यादा बढ़ जाना बच्चों में घुटन पैदा करता है । बच्चों में भेदभाव करना आज रिश्तों के दरकने का, टूटने का, टूटकर बिखर जाने का एक बड़ा कारण हो गया है । भावनात्मक आघात मनुष्य को तोड़ता तो है परंतु फिर भी भीतर से कुछ करने की ताकत भी देता है । ऐसी स्थिति में हम अच्छा करते हैं या बुरा यह दिशा निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।
परिवार एकल हो या संयुक्त बच्चों की परवरिश बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती है ।बच्चे संस्कारी हों, सुपथ पर चलने वाले हों तो इससे बड़ा सुख और कुछ नहीं होता ।
वर्त्तमान परिदृश्य में रिश्तों को लेकर बहुत सारे बदलाव कानून में आये हैं ।लोग अपने जीवन को लेकर काफी सजग हैं और तनाव से दूर सुख की दुनिया तलाश करते हैं । सुखमय वैवाहिक जीवन नहीं प्राप्त होने पर कानूनकी मदद से अन्य कई रास्तों का विकल्प भी लोगों के सामने है और लोग उसका पूरा लाभ लेकर खुद को मानसिक रूप से स्वस्थ महसूस करते हैं ।
आज टूटते एवं दरकते रिश्तों को प्रेम की जरूरत है । प्रेम यदि दोनों ओर से हो तो रिश्तों की ऊर्जा सदैव बनी रहती है और यदि घटते प्रेम एवं स्नेह का आभास हो तो उसे जीवन दान देने का भरसक प्रयास किया जाना चाहिए ।रिश्तों की उर्वरता एवं शीतलता तभी तक रह सकती है जब तक स्नेह की बारिश दोनों तरफ से हो । रिश्तों के बीच रहकर स्वाभिमानकी रक्षा सर्वोपरि है । जब स्वाभिमान टूटने लगे, रिश्ते अपनी मर्यादा भूलने लगें तो ऐसी विषम परिस्थिति में एकल परिवार बनकर अपनी जिम्मेदारियों को पूर्ण करना ही न्याय संगत है ।
अगर सभी अपनी भावनाओं को शुद्ध कर रिश्तों को लंबे समय तक जीवित रखना चाहेंगे तो रिश्ते निश्चित रूप से करुणा एवं स्नेह बरसाते हुए चिरकाल तक हमारे बने रहेंगे ।
अनिलकुमार मिश्र, राँची, झारखंड
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