कविता

मेघ युवाहो
बदमाशियों पर
उतर आया है,
कभीभी बेधड़क
दस्तक दे जाता है
और कर देता है सराबोर
अपने बडे– बडे बूँदों से ।
दावाग्निभी समेट चुकी है
अपनी उदण्डता को,
हो गई है सीमित
एक दायरे में ।
कोयल कीकूकभी
अब कमही गूँजती है
पहाडियों में क्यों कि
वो कर रही है एहसास पूर्णताकी,
और बनाचुकी है
अपना आशियाना कहीं
दरख्त पर लदे फल के पास ही ।
अषाढकी काली घटा
किसानों के मनसूबे को
भीगी- भीगी, सौंधी
खुशबू वाली हवा के सँग
पहुँचा रही आसमान पर ।
अंशु झा, काठमांडू नेपाल