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काँच हूँ टूट कर बिखर गई हूं…
अब तो और भी सँवर मैं गई हूं…
कोरा कागज थी..
लिख लिख कर भर मैं गई हूं…
कविता लिखते लिखते…
कविता में कही खो मैं गई हूं…
दुनिया ने छला है इतना..
कि खुद को छल मैं गई हूं…
यादो में ही अपनी…
गुम हो मैं गई हूं…
तोड़ा गया है इतना…
कि टूटना भूल मैं गई हूं…
सहारा न मिला किसी का…
खुद का सहारा बन मैं गई हूं…
किनारा न मिला कहीं…
खुदही किनारा बन मैं गई हूं…
औरो को संभालते संभालते…
खुदही संभल मैं गई हूं…
औरो को सिखाते सिखाते…
खुद ही सीख मैं गई हूं…
हाँ अब तो…
और भी सँवर मैं गई हूं …
हाँ अब तो…
और भी निखर मैं गई हूं..
ममता बारोट, अजमेर, राजस्थान, भारत