• २०८१ माघ १ मङ्गलबार

कहीं फर्श तो कहीं रंगे मन

सुषमा दीक्षित शुक्ला

सुषमा दीक्षित शुक्ला

होलीकी वो मधुमय बेला,
बीत गयी कुछ छोड़ निशानी ।
गली मोहल्ले रँग रँग है,
रंग हुआ नाली का पानी ।
दीवारों पर रँग जमा है,
चेहरों पर भी रँग रवानी ।
कहीं फर्श तो कहीं रंगे मन,
अलग अलग कर रहे बयानी ।
होली तो हे मीत यही बस,
याद दिलाने आती है ।
नफरत तोड़ो प्यार निभाओ,
दुनिया किसकी थाती है ।
होली का मङ्गलमय उत्सव,
मीत तभी साकार बनेगा ।
नफरत के दुर्भाव त्याग जब,
प्रेमरङ्ग संसार दिखेगा ।
वैसे तो होली के रँग में,
सभी लोग रँग जाते हैं ।
पर होली का अर्थ यही है,
चलो सभी अपनाते हैं ।
प्रेमरङ्ग में रंगे कृष्ण थे,
राधा रानी के जैसे ।
सच्चे रँग न धूमिल पड़ते,
इंद्रधनुष के रँग जैसे ।
होली के गर सही अर्थ को,
लोग सभी अपना लेंगे ।
कुत्सित मन की दुर्बलता को,
पल में दूर भगा देंगे ।
होलीकी वो मधुमय बेला,
बीत गयी कुछ छोड़ निशानी ।
गली मोहल्ले रँग रँग है,
रँगा हुआ नाली का पानी ।


सुषमा दीक्षित शुक्ला, झारखण्ड,भारत
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