• २०८१ बैशाख १४ शुक्रबार

मेरा अहं

प्रो. डा. प्रतिभा राजहंस

प्रो. डा. प्रतिभा राजहंस

कबतक
कविताओं में
भावनाओं
कल्पनाओं
और इच्छाओं को
रूप दूंगी मैं
कब तक, गूंगी
बनी रहूंगी मैं

प्रतिभा है
मेधा है
आगे बढ़ जाने की
ललक सबसे ज्यादा है
फिर भी जाने क्यों
रोज रात का संकल्प
सुबह में पिघल जाता है
और
सुबह खड़ा हुआ अहं

रात में लुढ़क जाता है
कबतक …

मन के भीतर
एक तराजू है
वह हरदम
मापतोल करता है
सही और गलत को
जांचता परखता है
फिर भी
जाने क्यों
असमय ही झुकजाता है
किसी एक तरफ
और मैं
बार- बार
हार जाती हूं
टूट जाती हूं
ढह जाती हूं
मेरा अहं
मेरा स्वत्व
मेरा आत्मबोध

खड़े होने को
रात का एकांत
या
दिन का सीमांत
ढूंढने लगता है
पता नहीं क्यों
कभीभी वह
दिन के उजाले में
ठीक से नहीं उभरता है
मेरा आत्मबोध
खड़ा होने को
बैसाखी क्यों तलाशता है ।


प्रो. डा. प्रतिभा राजहंस, भागलपुर
[email protected]