जिन्दगी क्षणिक है परन्तु इसी जिन्दगी में कभी- कभी आप ऐसा कुछ हासिल कर बैठते हैं जो आपकी कल्पना से परे होता है और जिसका मिलना आपको अपनी ही नजर में काबिल बना देता है । आज से चार साल पहले कविवर रिमाल जी से मेरी मुलाकात हुई वो भी इसलिए कि मैंने उनकी कविता संग्रह निर्मल निर्झर का संपादन किया था । साथ ही उसकी भूमिका भी लिखी थी । सच कहूँ तो निर्मल निर्झर से गुजरते हुए मैं कला की उत्कृष्टता की कसौटी पर इस संग्रह को नहीं देख रही थी, बल्कि मैं कवि की निश्चल भावनाओं से गुजर रही थी । यह एक अद्भुत अनुभव था मेरे लिए । अद्भुत इस मायने में कि उनके द्वारा रचित हर पंक्ति आपसे होकर गुजरती है, आपकी होकर गुजरती है । यह अनुभव अपने आप में इतना पूर्ण होता है कि, आप यह भूल जाते हैं कि आप जिन पंक्तियो में खोए हैं वो किसी और की भावनाएँ हैं । यह मैंने बहुत ही अच्छी तरह से महसूस किया ।
और जब हम या आप किन्हीं की रचनाओं को पढते हुए इस भाव से गुजरते हैं तो रचनाकार वहाँ सफल हो जाता है । इस मायने में रिमाल एक सफल रचनाकार थे ।
उनकी रचनाओं को पढते हुए जैसे- जैसे मैं उनकी पंक्तियों से रुबरु होती गई वैसे- वैसे यह खयाल दिल में बैठता गया कि मैं जब भी रिमाल जी से मिलूँगी तो उनकी कविताओं को लेकर बहुत सारी बातें करुँगी । मुलाकात तो हुई किन्तु ये वो समय था जब मैं सिर्फ उन्हें सुन रही थी अपनी भरी नजरों के साथ । उनकी लड़खड़ाती आवाज में जो शब्द थे मेरे लिए वो अवर्णननीय है । अपनी जिन्दगी के बचे हुए लम्हों से जूझता एक कवि अपने लिए लिखी गई मेरी पंक्तियों को लेकर अभिभूत था और मैं सिर्फ उनके शब्दों को महसूस कर रही थी । उनके आशीर्वाद के लिए उठे हाथ और मेरी लेखनी के लिए सराहना के शब्द आज भी मुझमें जिन्दा हैं और हमेशा रहेंगे । सोचती हूँ काश बहुत पहले उनसे मिली होती तो बहुत कुछ उनके लिए जानने और समझने का अवसर मुझे मिला होता । परन्तु यह सुअवसर मुझे नहीं मिला बस एक मुलाकात वह भी अंतिम मुलाकात । उनसे मिलने के बाद दूसरी जो खबर मिली वो अकल्पनीय थी ।
साहित्य को समर्पित आपके व्यक्तित्व को और आपकी कृतियों को जो स्थान मिलनी चाहिए थी मुझे लगता है वो उन्हें नहीं मिली जिनके वो अधिकारी थे । नेपाली और अँग्रेजी भाषा में आपने कई रचनाएँ की, इसी क्रम में हिन्दी भाषा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना, हिन्दी के प्रति इनके अगाध स्नेह को दिखाता है । भाषा की कोई सीमा नहीं होती यह उक्ति चरितार्थ होती है कवि रिमाल के व्यक्तित्व को देखकर । ऐसे विलक्षण प्रतिभा का सानिध्य निश्चय ही गौरवान्वित करता है । मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे कम ही किन्तु उनका सानिध्य मुझे मिला ।
आपने ने लिखा है कि, “मैं अपने मस्तिष्क और हृदय से संवाद करता हूँ ।” यह एक वाक्य रचनाकार की सम्पूर्ण रचना- यात्रा से परिचित करा जाता है । आपको लिखने की लत थी, और यह लत बहुत प्यारी होती है, उसकी अपनी एक अलग ही दुनिया होती है, जहाँ वह सिर्फ खुद से मिल रहा होता है बाहरी दुनिया से बेपरवाह होकर । इसलिए रिमाल कहते थे, “खयालों में डूबना और लिखते रहना आदत सी बना ली है हमने ।” इतना ही नहीं वो यह भी मानते थे कि “शायर बनने का मतलब सिर्फ लिखना नहीं होता है । दर्द को उजागर करने के लिए अल्फाज सजाए जाते हैं ।” अल्फाजों को सजाने का हुनर जिसने जान लिया, जाहिर सी बात है सहृदयी उसके कायल हो ही जाएँगे । रिमाल की लेखनी जीवन की हर पहलू से होकर गुजरी स्वयं रिमाल कहते हैं कि, “मानवता की दुख भरी कहानी, विश्व राजनीति की दुर्दशा, गरीबों की उपेक्षा, प्रकृति, साहित्य, संस्कार और हमारी संस्कृति, ये सारे विषयवस्तु मेरे जेहन में हमेशा कुलबुलाते रहे ।” मस्तिष्क की इसी कुलबुलाहट ने अल्फाजों का जामा पहना और हिन्दी साहित्य की दुनिया में एक स्वतंत्र पहचान के रूप में रिमाल आए और अपनी भावनाओं के सागर में डुबोते चले गए । एक हसरत उनकी थी कुछ करिश्मा कर जाने की कोई बदलाव लाने की जिसे वो अपनी लेखनी के द्वारा करना चाहते थे और जिसकी झलक उनकी हर रचना में हमें मिलती है । ऐसी ही हालात में वह कभी कभी मौत को जीना चाहते थे । उसे अंगीकार करना चाहते थे-
एक रोज तो मरना ही है
फिर क्यों मौत से ड़रना है
ऐ इंसान कम-स-कम
इन्सानियत को तो वख्श दो
उम्रेदराज हो उसकी
इतना तो उसको वक्त दो !
पर उन्हें इतना यकीन भी था कि मरने के बाद भी वह लोगों के जेहन में जिन्दा जरुर रहेंगे-
मरने के बाद भी किस्सा बन के रहेंगे हम
सिर्फ वजूद नहीं रहेगा हमारी याद आएगी हरदम ।
सचमुच आप हमेशा हमारे दिल और दिमाग में रहेंगे और आपकी कृति साहित्य जगत को हमेशा समृद्ध करती रहेगी । आपको शत शत नमन ।
(डॉ श्वेता दीप्ति त्रिभुवन विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की उप-प्राध्यापक हैँ)
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