स्त्री महज एक विचार नहीं है । स्त्री पुरुष एक दूसरे के पूरक होते हैं । बावजूद इसके पुरुष विधेयक है और स्त्री निषेधक है और स्त्री के इस निषेधक भूमिका के प्रति पुरुष स्वयं मोहित होता है । शास्त्रज्ञ स्त्री को माया कहते हैं । स्त्री की अपनी संस्कृति है अपना इतिहास है जीवन और परम्परा है जो पुरुष से भिन्न है । सत्ता की शक्ति स्त्री को माना गया किन्तु इस शक्ति का आधार पुरुष था अलग से स्त्री शक्ति की सत्ता नहीं थी नतीजतन स्त्री सत्ता को अलग पहचान ही नहीं मिली । बावजूद इसके यह जग जाहिर है कि स्त्री का अस्तित्तव स्वतंत्र है जो महत्त्वपूर्ण ही नहीं सृष्टि के लिए आवश्यक है । इसलिए उसे नकारा ही नहीं जा सकता है । इसी सन्दर्भ में एक कहानी की चर्चा करना चाहूँगी ।
एक बार सत्यभामा ने श्रीकृष्ण से पूछा, मैं आप को कैसी लगती हूं ? श्रीकृष्ण बोले- नमक जैसी लगती हो । इस तुलना को सुन सत्यभामा क्रुद्ध हो गईं । तुलना की भी तो किस से की ? श्रीकृष्ण ने किसी तरह सत्यभामा को मना लिया और उनका गुस्सा शांत कर दिया । कुछ दिन पश्चात श्रीकृष्ण ने अपने महल में एक भोज का आयोजन किया । सर्वप्रथम सत्यभामा से भोजन प्रारंभ करने का आग्रह किया । सत्यभामा ने पहला कौर मुंह में डाला । मगर यह क्या ? सब्जी में तो नमक ही नहीं था । कौर को मुंह से निकाल दिया । फिर दूसरा कौर किसी और व्यंजन का मुंह में डाला । उसे चबाते- चबाते भी बुरा सा मुंह बनाया । इस बार पानी की सहायता से किसी तरह कौर गले से नीचे उतारा । अब तीसरा कौर कचरी का मुंह में डाला तो फिर थूक दिया । अब तक सत्यभामा का पारा सातवें आसमान पर पहुंच चुका था । जोर से चीखीं कि किसने बनाई है यह रसोई ? सत्यभामा की आवाज सुन कर श्रीकृष्ण दौड़ते हुए सत्यभामा के पास आए और पूछा क्या हुआ देवी इतनी क्रोधित क्यों हो ?
सत्यभामा ने कहा इस तरह बिना नमक की कोई रसोई बनती है ? एक कौर नहीं खाया गया । श्रीकृष्ण ने बड़े भोलेपन से पूछा,’ नमक नहीं तो क्या हुआ, बिना नमक के ही खा लेती । उस दिन क्यों गुस्सा हो गई थी जब मैंने तुम्हें यह कहा कि तुम मुझे नमक जितनी प्रिय हो ?’ सत्यभामा हैरत से कृष्ण की ओर देखने लगीं । कृष्ण बोलते गए, ’स्त्री जल की तरह होती है । जिसके साथ मिलती है उसका ही गुण अपना लेती है । स्त्री नमक की तरह होती है, जो अपना अस्तित्व मिटा कर भी अपने प्रेम- प्यार तथा आदर- सत्कार से अच्छा परिवार बना देती है । स्त्री अपना सर्वस्व खोकर भी किसी के जान- पहचान की मोहताज नहीं होती है ।’ अब सत्यभामा को श्रीकृष्ण की बात का मर्म समझ में आ गया ।
जी हाँ ’स्त्री और गृह’ पुरुष के जीवन की आवश्यकताओं में से एक है, जबकि ’पुरुष और गृह’ स्त्री का जीवन हैं ।
इसी सन्दर्भ में महादेवी वर्मा का निम्नलिखित कथन बहुत महत्वपूर्ण लगता है; जब वह कहती हैं किः “स्त्री को अपने अस्तित्व को पुरुष की छाया बना देना चाहिए, अपने व्यक्तित्व को उसमें समाहित कर देना चाहिए, इस विचार का पहले कब आरंभ हुआ, यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है, परंतु इसमें संदेह नहीं कि यह किसी आपत्तिमूलक विषवृक्ष का ही विषमय फल रहा होगा।” स्पष्ट है कि यह ‘विष- वृक्ष’ वह पितृसत्तात्मक समाज है जिसकी ओर महादेवी वर्मा संकेत करती हैं । यानी स्त्रियों को महापुरुषों एवं पुरुषों की छाया बनना चाहिए, पुरुष के हर उचित- अनुचित कार्य में स्त्री को उसकी संगिनी बनकर साथ खड़े रहना चाहिए; यह सीख हमें हमारा समाज आरंभ से ही देता आया है । जबकि अकेली स्त्री भी पुरुष के सहयोग के बिना, उसकी छाया बने बिना अपने जीवन- कर्तव्य को बखूबी निभा सकती है और निभाती है । इसका प्रमाण हमें यशोधरा के संदर्भ में भी मिलता है । इस संदर्भ में महादेवी वर्मा लिखती हैं- “महापुरुषों की छाया में रहनेवाले कितने ही सुंदर व्यक्तित्व कांति- हीन होकर अस्तित्व खो चुके हैं, परंतु उपेक्षिता यशोधरा आज भी स्वयं जीकर बुद्ध के विरागमय शुष्क जीवन को सरस बनाती रहती है।”
(डॉ श्वेता दीप्ति त्रिभुवन विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की उप-प्राध्यापक हैँ)
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