• २०८१ माघ ५ शनिवार

वो जो था

हरि मोहन

हरि मोहन

वो जो आदमी था,
चला गया।
न जाने कितनों को
उसने छला,
कितनों से छला गया ।

सब कुछ है यों तो उसमें,
पर–
वही नहीं है।

ऐसा होता है कभी
हम होते हैं, चाहे–
अनचाहे
लोगों के बीच
चले जाते, कभी भी, कहीं भी
रखकर खाली, अपना शरीर।
नहीं रहते वहां–
होते जहां ।

ठीक ऐसे ही किसी
दिवास्वप्न में–
वो चला गया ।


(कवि, कथाकार एवं समीक्षक/अब तक ४० पुस्तकें प्रकाशित/सम्प्रति- जे.एस. विश्वविद्यालय, शिकोहाबाद (उ.प्र.) के कुलपति, आगरा, भारत)
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