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वह करती है सावन में
भादो आने का इंतजार
उंगलियों पर गिनती है
एक- एक दिन
कि जानती है भादो तीज
के दिन की जाती है
हरितालिका पूजा
मायके से मिली साड़ी
सहेज कर रखे रहती है
महीनों तक
कि किसी ने कहा था
तीज में नई साड़ी में ही
पूजा की जाती है
हप्ते भर पहले से
करती है तैयारियां
ठेकुआ, पूडि़कीया
बनाती है
मेंहदी, काजल, बिंदी,
आलता से करती
है सिंगार
सजाती है खुद को
पियरी सिंदूर
नाक से लगा खूब
इतराती है
सब कहते हैं कि
कितना परेम है
पर, वह जानती है
साल में यही एक दिन है
जब वो अपने मन का
सजती है
सिंगार काढ़ती है
पूरी औरत लगती है
पूरे बरस तो उसकी
होठों की लाली भी
उसके चरित्र का प्रमाण
पूरे गांव में बांट आते हैं
पूरे बरस सिर्फ एक
टिकुली के भरोसे ही
काट लेती है
ऐसे में तीज दिन
परदेश मजूरी करने गये
मरद की पत्नी होने
का दरद कुछ
कम हो जाता है ।
(स्वतंत्र लेखन रांची , झारखण्ड)
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