• २०८२ मंसिर २०, शनिबार

कामायनी में मानवीय रूप सौन्दर्य

डा. श्वेता दीप्ति

डा. श्वेता दीप्ति

सम्पूर्ण छायावादी काव्यधारा में प्रसाद एक ऐसे अकेले कवि हैं जिनका काव्य व्यक्तित्व क्रमशः उत्तरोत्तर और निरन्तर रचनात्मक, आधुनिक और विकसित होता गया है । इस लिहाज से उनकी काव्य चेतना और चेष्टा का लगातार अतिक्रमण करती है । इस अतिक्रमण की प्रकृति, अन्तर्विरोधी नही। है, एक निरन्तरता और काव्य व्यक्ति की संश्लिष्टता बराबर बनी हुई है । उनके ब्रजभाषा काव्य या चित्राधार से शुरू होने वाली जो काव्य यात्रा ‘कामायनी’ में सम्पन्न होती है, उसके काव्य वृत्त लगातार विस्तृत होते हैं ।

‘कामायनी’ की कथा का प्रवल प्रवाह हिमगिरि के उत्तुंग शिखर के उत्स से प्रस्रवित होती हुई, प्रथम सारस्वत नगर की समतल भूमि को रस स्निध करता है तत्पश्चात् अन्तिम परिणति के समय कैलाश पर आनंद अम्बु निधि में पर्यवसित हो जाता है । कामायनी के उषा, संध्या, दिवस, रात्रि, सूर्य, चन्द्रमा, मेघ, आकाश और वन पर्वत आदि के अनेक चित्र हृदय को आह्लादित करते हैं । अंत में तो हृदय का आनंद प्राकृतिक सौंदर्य से उत्पन्न आनंद से समन्वित होकर एक परम आनन्द की सृष्टि कर देता है ।

उनके सम्पूर्ण काव्य में सौन्दर्य के तीन स्वरूप दृष्टिगत होते हैं–मानवीय रूप सौन्दर्य, प्राकृतिक रूप सौन्दर्य और भावगत् रूप सौन्दर्य ।

१. मानवीय रूप सौन्दर्य– मानवीय रूप सौंदर्य का मतलब है, व्यक्ति की बाहरी सुंदरता के साथ–साथ उसकी आंतरिक सुंदरता भी । आंतरिक सुंदरता को अक्सर नैतिक या सद्गुण चरित्र लक्षणों के संदर्भ में समझा जाता है । सौंदर्य को सामान्य तौर पर वस्तुओं की एक खासियत के रूप में देखा जाता है, जो उन्हें देखने में आनंददायक बनाती है । सुखद विचारों की भाव–तरंगें, सादगी के उपकरण मिलकर सौंदर्य का निर्माण करते हैं । सौंदर्य का विकास प्रेम और कत्र्तव्य–भावना से होता है । मन को सद्गुणों से आरोपित करने में ही मनुष्य का सच्चा सौंदर्य सन्निहित है । मानवीय रूप सौन्दर्य के अंतर्गत प्रसाद ने स्त्री–पुरूष के बाह्य सौन्दर्य का वर्णन बड़े मनोयोग से ‘कामायनी’ में किया है । कामायनी एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें स्त्री सौन्दर्य ही नहीं, पुरुष सौन्दर्य का वर्णन भी अत्यन्त सुक्ष्मता के साथ किया गया है –

‘कामायनी’ के मुख्य पात्र मनु के सुदृढ़ शरीर तथा अपार वीर्य का वर्णन उन्होंने बड़ी सजीवता से किया है–
“अवयव की दृढ मांसपेशियां ऊर्जस्वित था वीर्य अपार
स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का होता था संचार ।”

अवयवों की संपुष्टता के अभिधान द्वारा कवि ने मनु के शारीरिक आकर्षण और बल का निर्देश किया है । इस छोटे से पद्य में कवि ने मनु के व्यक्तित्व का आकर्षक चित्रांकन किया है । प्रत्येक शब्द नपातुला और अर्थव्यंजक है । पंक्तियों में प्रयोग किए गए उर्जा और वीर्य पर्यायवाची हैं । वीर्य और ऊर्जस्वित कह कर कवि ने मनु के बल की अतिशयता का प्रकाशन किया है । उपयुक्त विशेषणों का का प्रयोग चमत्कारवर्धक है ।

“चिंता कातर बदन हो रहा पौरुष जिसमें ओत प्रोत
उधर उपेक्षामय यौवन का बहता भीतर मधुमय स्रोत ।”

मनु के शारीरिक सौष्ठव का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि उस पुरुष का अंग अंग पुरुषोचित शौर्य से परिपूर्ण था, वह हताश है किन्तु उसके अंतर में युवावस्था के अनुरूप मधुर, सुखद एवं मादक भावों की धारा बह रही है । मनु के बाह्य सौन्दर्य का वर्णन चिंता सर्ग में मिलता है । साथ ही देवताओं के विलासिता के वर्णन में भी कवि का सौन्दर्य बोध झलकता है–

“अब न कपोलों पर छाया सी पड़ती मुख की सुरभित भाप
भुज मूलों में शिथिल वसन की व्यस्त न होती है अब माप ।”

“यहाँ पर कवि ने बिंब ग्रहण का बहुत कुछ दायित्व पाठक की प्रतिभा पर डाल दिया है । उसने यह निर्देश नहीं किया कि किसके मुख की भाप किसके कपोलों पर पड़ती थी अथवा किसके वस्त्र भूजमूलों तक फैल जाते थे । फलतः विद्वानों अपनी अपनी प्रज्ञा के अनुसार अनुमान लगाये हैं । पहले प्रश्न का समाधायक उत्तर यह है कि प्रेमिकाओं के कपोलों पर प्रेमियों के मुख की भाप पड़ती थी, मनु सुरांगना के कपोलों पर झलकती हुई छाया को ही देख सकते थे, अपने कपोलों पर पड़ती हुई छाया को देख पाना संभव नहीं था । इसके अतिरिक्त युवतियों के कपोलों की बिंब योजना में ही काव्यात्मक सौन्दर्य है ।”

हालांकि ‘कामायनी’ में मनु की अपेक्षा श्रद्धा के सौन्दर्य का वर्णन कवि ने अत्यन्त मुखरता के साथ किया है ।
“और देखा वह सुंदर दृश्य नयन का इंद्रजाल अभिराम
कुसुम वैभव में लता समान चंद्रिका से लिपटा घनश्याम ।”

श्रद्धा का चिताकर्षक रूप ऐसा था मानो कोई जादुई रचना हो । उस कृशांगी की देह लता फूलों के ऐश्वर्य से संपन्न वल्लरी के सदृश शोभायमान थी । उसके गोरे शरीर पर नीला परिधान ऐसा लग रहा था मानो नीला मेघ चाँदनी से लिपटा हुआ हो । श्रद्धा के रूप सौन्दर्य वर्णन में प्रसादजी ने उसके बाह्य गुणों को आन्तरिक सौन्दर्य से मिला दिया है । श्रद्धा की उन्मुक्त तथा उदार काया को उन्होंने उसकी आन्तरिक उदारता का परिचायक बताया हैस

“हृदय की अनुकृति वाह्य उदार, एक लम्बी काया उन्मुक्त,
मधु पवन क्रीडित ज्यो शिशु शाल, सुशोभित हो सौरभ संयुक्त ।”

श्रद्धा का रूप ऐसा था मानो उसके अंतःकरण की उदात्तता, महत्ता एवं अमायिकता ही शरीर के रूप में साकार हो गई हो । वसंत के शीतल मंद समीर से आंदोलित और सुगंधमय कोई छोटा सा साल वृक्ष शोभायमान हो । “प्रसाद ने श्रद्धा को हृदय का प्रतीक माना है । उनकी दृष्टि में श्रद्धा आदर्श नारी है, इसलिए उसके तन और मन में एकरूपता है । हृदय का सौन्दर्य ही तो आकृति ग्रहण करता है, तभी मनोहरता रूप में आती है ।”

इसी प्रकार बाह्य अनुकृति का वर्णन करते हुए प्रसादजी नीले वस्त्र से आच्छादित श्रद्धा के गौर वर्ण और सुकुमार अंगों के सौन्दर्य को बिजली के फूल के समान देदीप्यमान बताते हैं –

“नील परिधान बीच सुकुमार, खुल रहा मृदुल अधखुला अंग,
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघ बन बीच गुलाबी रंग ।”

यहाँ कवि की सौंदर्य दृष्टि की सूक्ष्मता का पता चलता है । नीले वस्त्र के बीच से दृश्यमान गोरे अंग के सम्मोहक सौंदर्य की मार्मिक अनुभूति कराने के लिए कवि ने मेघवन में खिले हुए बिजली के फूल की मनोहारिणी उत्प्रेक्षा की है । प्रसाद ने मेघ वन के रुपक की निबंधन और बिजली के गुलाबी फूल की संकल्पना द्रवारा उत्प्रेक्षा के लालित्य में चार चाँद लगा दिए हैं । ‘गुलाबी रंग’ श्रद्धा की स्वास्थ्य एवं उसकी नैसर्गिक शोभा का द्योतक है ।

“आह ! वह मुख ! पश्चिम के व्योम बीच जब घिरते हों घन श्याम
अरुण रवि मंडल उनको भेद दिखाई देता हो छविधाम ।”

श्रद्धा के नयनाभिराम मुख का सौंदर्य अद्भुत था । काले कुंचित केशों से घिरा हुआ उसका गोरा रंग, कांतिमान एवं लालिमा युक्त मुखमंडल ऐसा आकर्षक लगता था मानो संध्या समय पश्चिम के आकाश में काले बादलों की घटा को चीरकर दृष्टिगोचर सूर्य का दीप्तिमय, रागरंजित और मनोहर बिंब शोभायमान हो । कामायनी का श्रद्धा सर्ग प्रसाद की सौन्दर्य चेतना के अद्भुत रंगों से रंगा हुआ है । श्रद्धा के समान इड़ा के रूप सौन्दर्य का वर्णन भी प्रसाद जी ने बड़ी ही सजगता से किया है । इस सौन्दर्य चित्रण में उन्होंने जिन विशिष्ट उपमानों का प्रयोग किया है, वे अप्रतिम हैं ।

“उस रम्य फलक पर नवल चित्र सी प्रकट हुई सुन्दर बाला
वह नयन महोत्सव की प्रतीक अम्लान नलिन की नव माला
सुषमा का मंडल सुस्मित सा बिखराता संसृति पर सुराग
श्यामल कलरव सब जाग उठे, सोया जीवन का तम विराग ।”

इड़ा का आगमन और उसकी सौन्दर्य का वर्णन कवि उक्त पंक्तियों से करते हैं । इड़ा का मोहक सौंदर्य नेत्ररंजनकारी है । वह खिले हुए कमल के ताजजे फूलों की माला के समान सर्वांग सुन्दरी है । जैसे अरुण रवि मंडल संसार पर राग लालिमा फैला देता है, वैसे ही इड़ा की मधुर मुस्कान से अनुराग बरस रहा है । यहाँ कवि इड़ा का नाम उद्धृत किए बिना है उसके सौन्दर्य का वर्णन करते हैं । इड़ा के लिए ‘बाला’ शब्द का प्रयोग किया गया है, बाला अर्थात् सौभाग्यशालिनी, प्राणदायिनी तथा षोड्शी युवती । ‘नवल’ विशेषण का प्रयोग कर इड़ा की मनोहरता और नवयौवनावस्था को व्यंजित किया गया है ।

इडा के अद्भुत रुप का नख शिख वर्णन करते हुए कवि कहते हैं स्
“बिखरी अलके ज्यों तर्क लाज
यह विश्व मुकुट सा उज्ज्वल तम शशि खंड सदृश्य था स्पष्ट भाल ।
दो पद्म पलाष चषक से दृग देते अनुराग विराग ढाल
गुंजरित मधुप से मुकुल सदृश वह आनन जिसमें भरा गान
वक्षस्थल पर एकत्र धरे संसृति के सब ज्ञान विज्ञान
था एक हाथ में कर्म कलश वसुधा जीवन रस सार लिए
दूसरा विचारों के नभ को था मधुर अभय अवलंब दिये
त्रिबली थी त्रिगुण तरंगमयी, आलोक वसन लिपटा अराल
चरणों में थी गति भरी ताल ।”

इस एक गीत में इड़ा के रूप लावण्य का शिख नख वर्णन लालित्य की ददृष्टि से साहित्य में बेजोड़ है । कवि ने उसके विशिष्ट अंगों का संक्षिप्त एवं अलंकृत शैली में रमणीय चित्रण किया है । इसमें इड़ा की प्रतीकात्मकता के अनुरूप दार्शनिक संकेत भी निहित हैं ।

निष्कर्ष
प्रसाद सौन्दर्य पर बलिहार होने वाले कवि हैं । उनके काव्य में सुकुमार सौन्दर्य विद्यमान है, जिसमें हृदय के कोमल और मधुर भावों को जगा कर जीवन को उदात्त बनाने की पूरी क्षमता निहित है । उनकी सौन्दर्य सर्जना मानव को अभिभूत कर अकर्मण्य नहीं बनाता, बल्कि मानव की चेतना में ऊर्जा का संचार कर नये युग की अभिलाषा को उद्दीप्त करता है । प्रसाद ने स्वयं ही सौन्दर्य को मोती के भीतर छाया जैसी तरलता कहा है । प्रसाद पर कालिदास का गहरा प्रभाव था । अतः उनकी सौन्दर्य चेतना छोटे–छोटे बिम्बों से पूरा नहीं हो सकता था, इसलिए अपने उदात्त व्यक्तित्व के अनुरूप उन्होंने हिमालय, सागर, आकाश, कैलाश, बादल आदि के विराट बिम्बों को अपनी सौन्दर्य चेतना में ढालने का कलात्मक प्रयास किया है । काव्य में वर्णित उनकी सौन्दर्य चेतना को अनुभूत कर पाठक अपनी चेतना में भी एक ऊँचाई का अनुभव करता है । ‘कामायनी’ के काम सर्ग में प्रसाद की अलक्ष्य सौन्दर्य के प्रति अद्भुत सौन्दर्यात्मक अनुभूति एवं अडिग आस्था पूरी तीव्रता के साथ अभिव्यक्त हैः

सौन्दर्यमयी चंचल कृतियाँ, बनकर रहस्य नाच रही
मेरी आँखों को रोक वहीं, आगे बढ़ने में जांच रही ।
मैं देख रहा हूँ जो कुछ भी, वह सब क्या छाया उलझन हैं ?
सुन्दरता के इस पर्दे में क्या अन्य धरा कोई धन है ?

उन्होंने सौन्दर्य के प्रति आकर्षण एवं सौन्दर्य को सत्य एवं शिव के रूप में देखा । नारी प्रकृति एवं मानवी सौन्दर्य को अपनी भावना से संजोकर उन्होंने कामायनी जैसे महाकाव्य का सृजन किया, जो हिन्दी साहित्य जगत में अमूल्य धरोहर के रूप में विद्यमान है । कामायनी में मानवीय सौन्दर्य, प्राकृतिक और भाव सौन्दर्य के साथ–साथ भाषागत सौन्दर्य सर्वत्र व्याप्त है । हिन्दी साहित्य में कामायनी अद्भुत रचना है ।


डा. श्वेता दीप्ति