• २०८२ कार्तिक १४, शुक्रबार

दशहरा कै चिपरी

हंंसा कुर्मी

हंंसा कुर्मी

तिउतिउहार मे बूढ़, जवान औ बच्चे सब कै काम बढि़ जात है । होय के तो तिउहारै तो एक ठू है जवन मन कै गिलवासिकवा खतम कइ देत है । यिहै मन से मन का जोडि़Þ देत है । कवनो जमाना रहा, महीना दिन से तइयारी चलत रहा । अब के समय मे बुद्धि औ रूपया रहै तो काम दिनै भरेम होय जात है । हाँ, लेकिन कुछ अइसन काम है जवन अपनेन करै के परत है । पता नाही अब आवै वाली बिटिया–पतोह यी कुलि कइ पावै कि न ? सोचे ओरात नाही है । हमरे घरे हीं दुइ मिली रजनी औ सोमना ! यी दुनौ कै बाति तो माथा चकराय देत है, न मालुम दुनौ के केतना बाति आवत है । पता नाही मास्टरजी स्कुलिया मे कइसै यी लरिकेन का सम्हारत हैं । हमार तो का कही यिहै दुनौ हाथगोड़ जेस होय गा हीं । यी दुनौ का सामने नाही देखित है तो लागत है ससुइयै ठहरि जाई जेस होय जात है । पता नाही कवने ओर चलि दिहिन दुनौ । गोड़वा मे जइसै चक्का लाग है । फुर्र से यक्कै घरि मे कहाँ से कहाँ पहुचि जात हीं दुइ कै दुनौ । होय के तो एक न एक दिन वसरीपारी दुनौ बिरान देश चलि जइहैं बिना पंख के ! फरक यिहै है हम अङ्गुठा टेक रहेन, बाति बाति पर दूसरे के सहारा चाहत रहा । यी दुनौ पढि़लिखिकै आपन लगायत दुसरेव कै सहारा बनि जइहैं । आजी मनैमन गुनतधुनत हीं औ अपने विगत का वर्तमान से तुलत हीं ।

“अरे सुनति हौ, रजनी औ सोमना कहाँ चलि गर्इँ हीं ?” अजिया बहुरिया से पुछत दुआरा पर निकरिं ।
“कवनो काम रहा, अम्मा ?”
“अरे, दरवाजा पर दशहरा दस्तक दइ दिहिस है, घर मे काम नाही है का ? तिउहार के वकत एक से एक धन्धा निकरि परत है । बुढ़, जवान औ लरिके सब के खातिर । कहाँ हीं दुनौ ?”
“अपने बइठव, हम बोलाइत है वन्हरे पचन का ।”
आजी कै उमिर अइसै बहत्तर–तिहत्तर कै है । रजनी औ सोमना दश औ ग्यारह सालि कै । यी दुनौ उनके आँखि कै पुतरि जेस हीं । आँखिसे जइसै आँडेÞओल्ते होत हीं तइसै आजी ढुढ़ै लागत हीं । आजी जेतनै डाँटतडपत हीं वतनै दुलारो करत हीं । रजनी औ सोमनव अपने वसरी पर मवका बाँव नाही जाय देत हीं । कब्बोकाल तो वसरीपारी खीसा सुनावत आजी कै आधी राति बिति जात है । तब्बो उक ठू अउर कहै के दुनौ नाही छोड़त हीं ।

दूरेन से रजनी औ सोमना हँसी ठिठोली करत हीं– बिना बताये चलि आयेव रहिउ, आज तो आजी आसमान उठाय लिइहैं । न कहतै आजी देखतै भरेम कहत हीं,“हम्मै बिनु बताये कहाँ चलि गयेव रहा दुनौ ?”
“काहे, आजी तोहरो मन रहा हमरेन के साथे लङ्ङडगोट्टी खेलै के ?”
“कि, आजी बयजल्ला खेलै के मन रहा ?”
दुनौ वसरीपारी आजी का चिढ़ावत हीं । यहर आजी कै गुस्सा आसमान छुवै के है । “कहाँ है हमार टेकनिया लाव तो, बताइत है यी दुनौ का, अब्बै टेकनी परतै होश काम करै लागी ।” आजी अपने का नाही सम्हार पावत हीं ।
रजनी सोमना से कुछ कम चन्चल ही । उ आजी का गरमात देखिकै कहत ही,“आजी, कवनो जरुरी काम रहा । पहिले बताये होतिउ तो हमरे खेलै नाही जाइत ।”
रजनी कै बाति सुनै के बाद आजी गुस्सा आसमान से यक्कै रपट मे धरती पर उतरि आवत है । मुस्कियात कहत हीं,“काल्ह से दशहरा सुरु होय वाला है । घरही पर बहुत काम है औ तोहरे सब…।”
“आजी, सब काम अम्मा औ काकी तो करतै हीं । जवन कहत हीं तवन हमरेव सहयोग कइ दिहा जात है । कि तोहार कुछ अलगै काम है आजी ?” रजनी पुछिस ।
“हम जानित है ! पञ्चिमिया जेस आजी गुड्डागड्डीन बनावै के सोचत होइहैं । लेकिन हम तो नाही जाबै गुड्डागुड्डीन बनावैसोनावै । हम्मै उ सब नाही नीक लागत है ।” मुँह मटकावत आँखि नचावत सोमना कहिस ।
“तोका के कहत है बिचवै मे बोलै के, पहिले आजी कै बाति सुन तो सही ।” रजनी सोमना का बिचवै मे टोकिस ।
“अरे, सोमना, तयँ हर तिउहार मे गुड्डैगड्डीन बनइबे । हरेक तिउहार कै अपने रिवाज होत है । वहर देख तो तोर बाति सुनिकै कुकुरव भुकै लाग ।” आजी भुकत कुकुर का देखावत कहिन औ बाँकी सब जने हँसै लागें ।
सबकै हँसब सोमना का बढि़या नाही लाग । उ आपन आँखि भौंह सिकोरत कहत ही,“यहि घर कै गुनदार, जानैबुझैवाली अजिन होयं । वय नाही सिखावत हीं तो हम काव जानी । जवन बुझेन तवन कहेन । यहिमे सब का हीं…हीं…हीं.. हँसै वाली बाति काव है ।”
सोमना कै बाति सुनिकै आजिउ का हँसी लाग लेकिन वय कुछ नाही कहिन । आपन हँसी रोकत औ सोमना का दुलरावत कहिन,“काल्ह दशहरा कै पहिला दिन होय । तोहरे दुनौ जनी सबेरन जाइकै दश मेर कै फूल लोढि़ लायेव । बेचन बाबा के घर से गाय के गोबरो लई आयेव न ।”
“आजी, गोबर गणेश बनाइकै दश मेर के फूल से पूजा करबो, रमवापुर कै पण्डित बाबा गोबर गणेश बनाइकै पूजा कराइन रहा, मुन्शी काका के घरे….!” सोमना आजी कै बाति पूरा होय से पहिलेन बोलि परी ।
सोमना अपने आदत से मजबूर ही । उ मने मे आवा बाति नाही रोकि पावत ही । वका केहू से कहै के या पुछै के तनिकौ डेर, भय नाही लागत है । वकर बाति सुनिकै अबकिर रजनी हँसै लाग । वका हँसत देखिकै फिर सोमना कहत ही,“सत्नरायन बाबा कै कथवा सुनै तुहुँ तो गइयु रहा, नाही याद है । सब जने कथा सुनत रहें हाथेम फूल लइकै, हम तो वहीँ काव काव धरा है, सब बढि़या से देखत रहेन ।”
“अच्छा, उ कुलि बाति छोड़व, हमरेन के घरे सत्नारायन कै कथा नाही होय जात है । बिहान गाय के गोबर से दश ठू छिपरी बनावै के होई औ वहि पर टीका लगावा जाई औ दश रङ कै फूल वहि पर चढ़ावै के होई…. ।” आजी कहिन ।
“लेकिन, आजी दश रङ कै फूल कहाँ से लावै ?” रजनी आपन जिज्ञासा जाहिर किहिस ।
“हो ! यिन का दश रङ कै फूल नाही मिलत है । हम लइ आइब आजी लेकिन चिपरिया बनावै के हम्मै देय कै परी ।” सोमना आपन बाति कहिस अबकिर बहुत शान्त औ मासुम होइकै ।
“ए, सोमना, अच्छा बताव तो दश रङ कै फूल कहाँ से लावै के होई ।” रजनी मन कै उल्झन कहिस ।
“सुन, दिदिया पाँच रङ कै फूल कनइल, अड़हुल, रातरानी, गेना औ चमेली कै फूल मन्दिरिया पर से साधु बाबा से माङि लेय के होई, औ कुछ फूल घरही पर है । अच्छा आजी, नाही पहुची तो लउकी, घेंवड़ा, भिन्डी कै लोढि़ लेय के होई…हाँ…हाँ…हाँ ।” सोमना आपन बाति कहिस । वकर जोेगाड़ी बाति सुनिकै अबकिर तो आजिउ आपन हँसी नाही रोकि पाइन औ कहिन,“हाँ, वहु से काम चलि जाई ।”
“आजी, यी दश ठू चिपरी से काव करबो । यक्को जुनिके चहवो नाही बनि पाई ?” रजनी पुछिस ।
“सहियै, आजी का करबो । यहिसे कुछ होय वाला नाही है, कि हमरेन जेस घरघरौना खेलबौ आजी ?” सोमनव आपन बाति वहिमें जोडि़स ।
दुनौ कै बाति सुनिकै आजी वसरीपारी मुँह निहारै लागीं । आपन दिन याद किहिन– एक हमरे सब रहेन । अपने से बड़ा से कब्बो दोहरा सवाल नाही किहा गै । आजकाल्ह के बच्चे अपनो राय देत हैं । हरेक मोड़ पर सवाल करत हैं । यन्हरेन के देंहिमें रेङै वाला खूनपानी तो हमरहिन कै होयं । अइसन दिमाग कइसै बनायेव हे भगवान ! आज यी बहत्तरतिहत्तर के वरिस के होय के बाद तुँहिसे पुछै के परा ।
“आजी, बतावोे न का करबो, कि पण्डित बाबा से पुछिकै बतइबो ?” सोमना आजी कै हाथ पकरत पुछिस ।
“एक छिन छुप रहव न, आजी बतइबै करिहैं न, तोका सुनै के है तो पहिले शान्त रहव न ।” रजनी सोमना का रोकतै कहिस ।
दशहरा कै चिपरी कै रहस्य जानै के मन तो रजनिउ का है लेकिन उ सोमना जेस उताहिल नाही ही । उ हरेक बाति कै इन्तजार कइ लेत ही । यहिसे आजी कै डाँटफटकारो कमै सुनै के परत है ।
“अच्छा, सुनौ । चिपरी झुराय जायके बाद वका जतनियाइकै धइ दिहा जाई ।” यतना कहिकै दुनौ का निहारै लागत हीं औ मासुम सवाल सुनिकै मुस्कियाय लागत हीं तब तक सोमना पुछत ही,“वकरे बाद !”
फिर रजनिउ पुछि परत ही,“हाँ आजी, तब काव होई ?”
“यी, चिपरी फगुवा से पहिले पुन्नवासी के दिन जब सम्मत फूकिहै सब जने तब अपने अपने घर से लइ जाय के वही सम्मत मे चढ़ाय दिइहैं । सम्मत के सङहरियै यिहौ चिपरी सब चरिकै राखि होय जाई । बिहान पहर सब जनी जाइकै सम्मत कै राखि लइहैं औ सब का टीका लगइहैं । यकरे बाद सब जने फगुवा खेलि हैं । आजी सब बाति विस्तार से बताइन लेकिन सोमना कै मन मे अबहिनौ उथलपुथल मचा रहा । उ बेर–बेर आजी कै हाथ पकरि लेत रही । आजी वकर मनसुब्बा समझि गईँ,“अउरो कुछ पुछै के है सोमना ?”
“हाँ, आजी ।”
“तब पुछौ ।”
“आजी, दशहरा कै चिपरी के खातिर गइयै के गोबर काहे चाहीँ, भइँस के गोबर से नाही होई । आखिर चाहे जानवर कै गोबर तो गोबरै होय न ? जेकरे घरे या गाँव मे गाय नाही हीं, वही बेचारे कै बिना काम कै परेसानी, हमरे तो समझ मे नाही आवत है ?” सोमना आजी कै अँचरा समकियावत कहिस ।
चिपरी वाली विषय रजनी औ सोमना के मन मे बहुतै सवाल पयदा कइ दिहे रहा । रजनी थम्हिथम्हिकै सवाल करत रही तो सोमना के मन मे कवनो संकोच औ झिझक नाही रहा । आजी दुनो कै मनोभाव बुझत रहीं तब्बो चुप रही । यहर रजनी औ सोमना आजी से बतकही मे यतना मगन रहीं अउर काम कै सुर्तै नाही रहि गै । यहर उ दुनौ उठै के नावै नाही लेत रहीं । आजी उलोग का यकरे बारे मे सन्झा के खीसा सुनावै के वादा कहिन औ उठै के कोशिश किहिन ।

“अरे अब गउधुर होय लाग । रजनी दियाबाती के जुनि होय गवा । आजी का परेसान न करौ ।” अम्मा कै यी बाति कानेम परतै भरेम सोमना कहत हीं,“आजी रातिके गाय वाली खीसा सुनइबो न ।”
“हाँ, सुनाइब । अच्छा अब उठा जाय नाही तो…।” आजी कहतै उठै लागीं ।
“नाही तो काव आजी….?” सोमना आपन बाति आगे बढ़ाइस ।
“अम्मा, रिसियाय जइहैं अउर का !” रजनी कहिस ।
“आजी एक बाति कही, अम्मा हरदम गउधुर कहत हीं । भइँसधुर काहे नाही कहत हीं ? गाँव भरेम दुइ ठू गाय ही तो गउधुर, एक दुइ जने के अलावा सब के घरे भइँस हीं तो केहू पुछत्तरै नाही । दूध, दहिउ औ घिउ तो भइँसियै कै ढेर होत है न ? हम तो सोचि मनइन के साथे भर अइसन होत है लेकिन यी मनई कै जात पशुवन के साथे अइसन विभेद करत हैं । बिचारी वन्हरे हमरेन के जेस बोलि नाही पावत हीं तो वन्हरे के साथे सब मनमानी करै लागत हैं ? हम्मै तो अइसन कुलि बाति तनिकौ नाही मने बइठत है लेकिन हमार बाति केहू बुझै के कोशिश नाही करत है ?” उठतैउठत सोमना आपन बाति अपनेआप से कहिन दिहिस ।

हंंसा कुर्मी


नेपाल प्रज्ञा प्रतिष्ठान प्रज्ञापरिषद सदस्य हंसा कुर्मी अवधी भाषा–साहित्यकी एक सशक्त–स्थापित नाम हो । महाराजगञ्ज नगरपालिका–९, कपिलवस्तु स्थायी घर भएकी कुर्मी अवधी र नेपाली भाषामा समान रूपमा कलम चलाउनुहुन्छ । उहाँको अवधीमा ‘अँजोरिया’, कविता संग्रह २०७१ र कथा संग्रह ‘विम्ब प्रतिविम्ब’ २०७९ प्रकाशित रहेको छ ।