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एक छोटी सी बड़ी घटना जिसने मुझे समयनिष्ठ बनाया,आपको रोचक लगेगी इसी प्रत्याशा में :
बात ज्ञढडड की है।मैंने मैट्रिक की परीक्षा पास की थी और ईश्वर नें पुरस्कार स्वरुप नयी-नयी मूंछें दी थी । मूंछों को भी शुरू से अनुशासन में रखना मेरी जिम्मेदारी थी, हमेशा ध्यान रखता था कि कहीं रास्ता भटक कर अनुशासनहीन ना हो जाये । हज़ारीबाग़ के संत कोलंबा महाविद्यालय में नामांकन हुआ जहाँ उस जमाने में नामांकन अत्यंत दुर्लभ था । फिर क्या था,धीमे-धीमे ही सही पर अहंकार सातवें आसमान पर- आखिर कॉलेज में दाखिल हुआ था, कोई छोटी बात थोड़े ही थी । कहाँ विद्यालय और कहाँ महाविद्यालय ! खुद में एक अजीब सी अनुभूति स्वतंत्रता की, बड़े होने की ।पुरानी साइकिल पर कॉलेज जाने में जो आनंद आता था वो शायद आज के छात्रों को बाइक में भी नहीं आता होगा । खुली, विस्तृत सड़कें बाँह फैलाए स्वागत करती सी प्रतीत होती थीं और साईकिल पर मेरा तन और युवा मन दोनों हज़ारीबाग़ शहर की प्रकृति से, झूमती हवाओं से, नाचते पत्ते और फूलों से संवाद स्थापित करता रहता था ।
मैं कला का छात्र था, मेरे पिताजी ने मुझसे बात करना बंद कर दिया था जब मैंने कला पढ़ने की इच्छा व्यक्त की थी । मेरे पिताजी चाहते थे मैं विज्ञान पढ़ूँ, उनके मित्रों के सभी सपूत विज्ञान पढ़ रहे थे, गुस्सा स्वाभाविक था । मेरी अभिरुचि विज्ञान में बिल्कुल नहीं थी और गणित से मैं थर-थर काँपता था ।
उन दिनों हमारे आवास का निर्माण कार्य चल रहा था । मैं घर में बड़ा था तो जिम्मेदारी भी स्वाभाविक थी । आवश्यक दायित्त्वों के निर्वहन के उपरांत अपनी बूढ़ी साइकिल से बाज़ार जाकर सीमेंट, छड़, कांटी, हार्डवेयर आदि के आवश्यक सामग्रियों को लाया करता था । पिताजी तो महाविद्यालय में अध्यापन कार्य में प्रायः व्यस्त रहते थे । जब भी पिताजी घर पर होते तो सारे कार्य खुद ही किया करते थे, कभी भी हम पर कोई भी कार्य नहीं छोड़ते थे ।इसी कारण से मौका मिलने पर मैं अवसर गँवाना नहीं चाहता था ।
उस दिन मेरी कक्षा थी संत कोलंबा महाविद्यालय के कमरा संख्या द्ध में । मेरे पिताजी ही शिक्षक थे । बाजार से छड़ बाँधने के लिए मैं तार लाने गया था, उम्मीद थी की समय पर घर होते हुए महाविद्यालय पहुँच जाऊँगा । वह काली बूढी साइकिल, घंटी वाली, उसके पैडल पर मेरे पाँव तेज़ी से चल रहे थे,खुद पर और अपनी साईकिल पर पूरा भरोसा था । समय पर अपनी कक्षा में उपस्थित हो जाऊँगा, ऐसी उम्मीद थी।भय से पसीने छूट रहे थे कि कहीं देर ना हो जाये । महाविद्यालय के साइकिल स्टैंड में साइकिल लगाते, टोकन लेते ही घंटी लग गयी,बहुत अफ़सोस, क्या करूँ, नहीं करूँ ? उस जमाने में महाविद्यालय का अनुशासन भी कम नहीं था ।
हिम्मत जुटाते हुए कक्षा की तरफ तेजी से भागा जा रहा था शायद पिताजी से पहले कक्षा में पहुँच जाऊं पर जैसे ही कक्षा के पास पहुंचा तो दरवाज़ा सटा था- मतलब गुरुदेवर पिताश्री प्रविष्ट हो चुके थे।ऊपर वाले को याद किया, फिर सोचा – थोड़ा विलंब हुआ तो क्या पिताजी मना थोड़े ही करेंगे ।
आवाज़ दिया- अंदर आ सकता हूँ ?
थोड़ी देर मुझे देखने के बाद आवाज़ आयी नही
विलम्ब से आनेवालों के लिए मेरी कक्षा में स्थान नहीं है्रु
मैं अवाक रह गया बिल्कुल मूर्त्तिवत-
पिताजी ने मुझे मना कर दिया।इस बात की तो बिल्कुल भी उम्मीद ना थी ।
यदि कोई दूसरा छात्र होता तो शायद पिताजी उसे अनुमति दे देते, इसी कारण जवाब में विलम्ब हुआ ।
मैं उतने छात्रों के सामने कैसे बताता की तार, सीमेंट आदि लाने गया था ।
मैं बिलकुल मूक होकर,अपरिपक्व मन में बहुत सारी बातें सोंचते हुए, समय के मूल्य को पहचानने का प्रयास करते हुए कक्षाओं के गलियारे से बाहर आकर महाविद्यालय के मैदान में हरी- हरी घासों पर बैठकर समय से मैंने मन ही मन क्षमा करने का निवेदन किया । अगली कक्षा राजनीति विज्ञान की थी, कक्षा में ससमय प्रविष्ट हुआ । कक्षा के बाद जब मैं घर लौटा तो पिताजी की नजरें मुझसे मिलीं । आँखों ही आँखों में दोनों ओर से बहुत सारे प्रश्न उत्तरित हो गये । प्रश्नों के उत्तर भी मिले, कुछ उत्तर भी प्रश्न बन गये । पिताजी ने उसी संध्या समय पर एक लंबा व्याख्यान दिया और बड़े प्यार से समझाया यदि हम समय को महत्त्व देते हैं तो समय भी हमे महत्त्व देता है, यह परस्पर है ।
फिर क्या था पिताजी की शिक्षा ने सब कुछ बदल दिया और फिर मैं उनके आशीर्वाद से, ईश्वर की असीम कृपा से कभी भी, कहीं भी लेट रविलंबित नहीं हुआ ।
देश के कई राज्यों में विद्यालय के शिक्षक एवं प्राचार्य के रूप में मैंने अपनी सेवा दी परंतु समय का सही प्रबंधन कर पाना बस इसी छोटी सी बड़ी घटना का प्रतिफल है । अपने सभी विद्यार्थियों को मैंने हमेशा समय को महत्त्व देना सिखाया ।
पिताजी आज मेरे साथ नहीं हैं पर उनकी एक छोटी सी सजा ने मुझे लायक बना दिया ।।
पिताजी ! शत- शत नमन !
अनिल कुमार मिश्र, रांची, झारखंड, भारत ।