कविता

अब नहीं चाहती मैं
तारों से सजी प्रशंसा,
न लहरों की वंदना,
न बाहरी स्वर का मधुर झूठ ।
मुझे तो चाहिए-
वो मौन स्वर
जो अंतर की गहराइयों में
मेरी ही छाया बनकर
मुझे ही समझे ।
कितनी बार
दूसरों की नज़रों में
खुद को पढ़ती रही मैं,
और हर बार
छूटा कुछ-
अपना, कोमल, अमूर्त ।
अब जब लौटकर
अपने ही नयनों में
झाँका है मैंने,
तो देखा-
एक निर्जन पुलिन पर बैठी
मैं स्वयं को पुकार रही हूँ ।
दुनिया की वाणी
अब केवल एक गूँज है,
जिसमें अर्थ नहीं-
केवल आदत है
सुनते रहने की ।
अब
जो भी सत्य है,
वो मेरी दृष्टि है,
जो भी सुंदर है,
वो मेरा अंतर ।
अब स्वयं की नज़रों में
सजना है मुझे,
बिना किसी बाहरी पुष्पवर्षा के-
केवल आत्मगंध से ।
प्रियंका सौरभ