• २०८२ आश्विन ७, मंगलवार

बच्चों में संस्कार के बिना शिक्षा अधूरी

अनिल कुमार सिंह

अनिल कुमार सिंह

विज्ञान के इस युग मे हम दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करते जा रहे हैं परंतु हमारे संस्कार, सदाचार एवं शिष्टाचार, हमारे बच्चों से दूर होती जा रही है ।वर्त्तमान शिक्षा संस्कारों का पूर्णतः अनुगमन नहीं करती और संस्कारों की बात करने पर, सदाचार की बात करने पर हमारे बच्चे ही हमे मूर्ख समझते हैं । इतिहास साक्षी है प्रत्येक युग ने एक उचित सीमा तक तरक्की की है, यह तरक्की सिर्फ हमने नही की । संस्कारों के साथ जब हम विकास की राह में अग्रसर होते हैं तो ज्यादा दूर तक जाने की संभावना बढ़ जाती है । अतः संस्कार, सदाचार, शिष्टाचार एवं उन्नति सभी आपस में एक दूसरे से जुड़े हैं ।

मनुष्य के जीवन में दो चीज़ें अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं –
संस्कार और शिक्षा ये दोनों ऐसे स्तंभ हैं जो व्यक्ति के चरित्र, सोच और जीवन के हर पहलू को आकार देते हैं, सुंदर साँचे में ढालते हैं । जहाँ शिक्षा व्यक्ति को ज्ञान देती है, वहीं संस्कार उसे उस ज्ञान का सदुपयोग करना सिखाते हैं । यदि शिक्षा दीपक है, तो निश्चित रूप से संस्कार उसकी ज्योति ।शिक्षा मनुष्य को अज्ञानता से ज्ञान की ओर ले जाती है । यह आत्ममंथन करने, तर्क करने और निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करती है । वर्त्तमान युग में शिक्षा के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती । शिक्षा ही वह साधन है जिससे व्यक्ति अपने जीवन को सुखद बनाने के साथ-साथ समाज को उन्नत बना सकता है ।

विकिपीडिया के अनुसार, शिक्षा शब्द शिक्षु धातु में अुप्रत्यय लगने से बना है । शिक्षु का अर्थ है सीखना और सिखाना । अतः शिक्षा शब्द का अर्थ हुआ सीखने और सिखाने की क्रिया ।
महर्षि चरक ने लिखा है संस्कारोहि गुणान्तराधानमुच्यते । अर्थात मनुष्य के दुर्गुणों को बाहर निकालकर उसमें सद्गुण आरोपित करना ही संस्कार है ।
जिसके आचरण, बोलचाल से दूसरों के प्रति सम्मान का भाव प्रकट होता हो, निरहंकारी हो, विनम्र हो, शिष्ट हो, माता-पिता, गुरुजनों के प्रति आदरभाव रखता हो, पुण्य कर्मों में आसक्ति रखता हो, ऐसे व्यक्ति को संस्कारी कहा जा सकता  है ।

संस्कार का उद्देश्य है- शुद्ध, पवित्र और नैतिक जीवन के लिए प्रेरित करना । ये हमें परिवार, समाज और परंपराओं से प्राप्त होते हैं । सत्य बोलना, बड़ों का आदर करना, अनुशासन में रहना, करुणा और सेवा भाव जैसे गुण अच्छे संस्कारों के उदाहरण हैं । संस्कार ही हमें यह सिखाते हैं कि जीवन में केवल सफलता नहीं, बल्कि श्रेष्ठता भी जरूरी है । संस्कार और शिक्षा एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं । यदि शिक्षा केवल बौद्धिक विकास तक सीमित रह जाए और उसमें नैतिकता का अभाव हो, तो व्यक्ति अपनी बुद्धि का दुरुपयोग भी कर सकता है । वहीं, केवल संस्कार हो और शिक्षा न हो, तो व्यक्ति समाज में अपने विचारों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत नहीं कर सकेगा । इसीलिए, एक संतुलित और सफल जीवन के लिए दोनों का समन्वय अत्यंत आवश्यक है ।

वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं कि शिक्षा का स्तर प्रथम दृष्टया बढ़ा हुआ प्रतीत तो होता है परंतु संस्कार निरंतर क्षीण होता दिख रहा है । नैतिक शिक्षा की घोर उपेक्षा के कारण हमारे समाज में अपराध का बोलबाला है और यह थमने का नाम ही नहीं ले रहा । स्व अनुशासन समाप्त होने के कगार पर है और संवेदनशीलता जिसके कारण मनुष्य का अस्तित्त्व है, वह भी आखिरी सांसें ले रहा है । अगर शिक्षा के साथ- साथ बच्चों को संस्कार से नहीं जोड़ा गया तो निश्चित रूप से आने वाले समय में हमे गंभीर परिणाम झेलने होंगे । अच्छे संस्कार के बिना शिक्षा अधूरी है ।बच्चों को अच्छे संस्कार दें, आधुनिकता एवं सुसंस्कार का समुचित समन्वय न केवल एक राष्ट्र का बल्कि पूरे विश्व का मार्गदर्शन करेगा, एक नयी दिशा दे पाने में सक्षम होगा, इसमें कोई दो मत नहीं ।


अनिल कुमार
मिश्र, राँची, झारखंड ।