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१. आंचल की चुप्पी
कमला का आंचल कभी दूध से भीगा रहता था, कभी आँसुओं से । हर बार जब पति गुस्से में हाथ उठाते, वह चुप रह जाती । माँ कहती थी- औरत का गहना उसकी सहनशीलता होती है । कमला ने भी मान लिया था कि चुप रहना ही उसकी ज़िम्मेदारी है । एक दिन उसकी बेटी ने पूछा- माँ, आप कुछ बोलती क्यों नहीं ? कमला ने उस दिन पहली बार आंचल से आँसू पोंछे नहीं, झटक दिए । वही दिन था जब चुप्पी ने बोलना शुरू किया- पहले डायरी में, फिर सभाओं में । अब उसकी चुप्पी औरों की आवाज़ बन चुकी है ।
२. अधूरी चिट्ठी
रश्मि हर शाम बालकनी में बैठकर एक चिट्ठी लिखती थी- अपने पुराने प्रेमी को । शादी के बाद उसका वो हिस्सा कहीं छूट गया था, जो सिर्फ लिख सकता था, साँस ले सकता था । वह चिट्ठी कभी पोस्ट नहीं होती, बस एक डायरी में बंद होती जाती ।
एक दिन उसके पति ने वह चिट्ठी पढ़ ली । लेकिन कुछ नहीं कहा । बस, अगली सुबह एक चिट्ठी उसके लिए भी रख छोड़ी- अगर तुम्हें खुद से बात करनी हो, तो मेरे पास मत आना, अपनी अधूरी चिट्ठियाँ पढ़ लेना । वहाँ की रश्मि ज़्यादा सच्ची है ।
३. रसोई की दीवारें
सुबह ६ बजे से रात १० बजे तक रसोई में लगी रहती थी । उसकी दुनिया वहीं थी- मसालों के डिब्बे, जलते पराठे और भीगी आँखें ।
एक दिन उसकी बेटी ने कहा- माँ, आपकी दीवारों में धुआँ भरा है । आप कभी बाहर क्यों नहीं जातीं ?
गीता मुस्कुरा दी- मैं रसोई में बंद नहीं, आदत में बंद हूँ ।
बेटी ने एक पेंटिंग बनाई- रसोई की दीवार पर उड़ती औरत की । उस दिन से गीता ने रसोई के बाहर भी जाना शुरू किया ।
४. दहेज के पंख
शादी के दिन रेखा को उसके मायके से एक बड़ी सी ट्रॉली मिली- बर्तन, गहने, कपड़े । सास ने कहा- अच्छा है, कुछ बोझ तो हल्का हो गया ।
रेखा को लगा वह उड़ने आई थी, पर यहाँ तो पंखों पर बोझ था । हर उपहार उसकी योग्यता से बड़ा हो गया था ।
एक दिन उसने नौकरी की बात की, तो जवाब मिला- जब सबकुछ मिल गया है, तो ज़रूरत क्या है ?
रेखा ने कहा- मुझे उड़ना है, दिखावा नहीं ।
वह ट्रॉली को छोड़, अपनी डिग्री लेकर निकल पड़ी- असली पंख वही थे ।
५. घर लौटती स्त्री
मीना दस साल बाद अपने मायके लौटी थी । माँ अब नहीं रहीं, पिता बूढ़े हो चुके थे । घर वही था, पर उसमें मीना के लिए कोई कमरा नहीं था ।
भाई की बहू ने पूछा- इतने दिनों बाद आई हो, तो रुकोगी कितने दिन ?
मीना चुप रही । वह बालकनी में जाकर बैठ गई- जहाँ कभी वह किताबें पढ़ा करती थी । दीवारों से बातें कीं, पेड़ को छुआ ।
अगले दिन वह लौट गई- किराए के घर में, पर अपने मन के साथ । घर वही नहीं होता जहाँ जन्म हो, घर वह होता है जहाँ अपनापन हो ।
६. बिंदी का रंग
शालिनी हर दिन आईने के सामने खड़ी होकर बिंदी लगाती थी । कभी लाल, कभी हरी, कभी कत्थई । यह रंग उसके मूड से नहीं, माहौल से तय होते थे । जब पति खुश होते, तो लाल बिंदी- जब नाराज़, तो बिना बिंदी । बिंदी उसकी पहचान नहीं, रिश्तों का पैमाना बन चुकी थी ।
एक दिन दफ्तर की पार्टी में उसकी सीनियर ने कहा- “तुम्हारी बिंदी बहुत सुंदर लगती है, आत्मविश्वास देती है ।” वह चौंकी । क्या बिंदी का मतलब सिर्फ ‘सजना’ ही नहीं, ‘जगना’ भी हो सकता है ?
७. मुँह दिखाई
नई नवेली बहू आरती को सास ने कहा – मुँह दिखाई में मुस्कुराना जरूरी है, वरना लोग बात बनाएंगे ।
आरती ने भारी घूंघट में मुस्कान ढूंढी । सामने बैठे रिश्तेदार नोटों की गड्डियाँ और गहनों की चमक के बीच उसके चेहरे को ढूँढ रहे थे ।
एक दादी सरीखी महिला ने धीरे से कहा- बेटा, मुँह दिखाई में अगर अपनी पहचान खो दो, तो पूरी ज़िंदगी घूंघट ही रह जाता है ।
रात को आरती ने आईने में खुद को देखा, पहली बार बिना घूंघट के । उसने तय किया- अगली सुबह उसकी मुँह दिखाई वह खुद करेगी- किताबों के साथ, अपने नाम के साथ । उसकी मुस्कान अब स्वीकृति नहीं, आत्मसम्मान थी ।
८. साड़ी की सलवटें
नीरा की साड़ी हमेशा ठीक से प्रेस की हुई होती थी, पिन से लगी, बिन सिलवटों के । दफ्तर में सभी उसकी सज्जनता की तारीफ करते ।
एक दिन उसकी साड़ी की एक सलवट रह गई- किसी मीटिंग में देर हो गई थी । बॉस ने टोक दिया, “आज कुछ अस्त- व्यस्त लग रही हो ।”
नीरा मुस्कुराई- “हां, आज मैंने साड़ी की नहीं, खुद की चिंता की ।”
उस दिन के बाद वह जानबूझ कर एक सलवट छोड़ने लगी- ताकि खुद के लिए भी थोड़ा समय बचा सके ।
९. सूने मंगलसूत्र
पूजा की गर्दन में अब भी मंगलसूत्र था, लेकिन उसकी आँखों में अब कोई प्रतीक्षा नहीं थी । पति की मृत्यु के बाद सबने कहा- “अब तो इसे उतार दो ।”
पर पूजा ने कहा- “यह सिर्फ वैवाहिक पहचान नहीं, मेरी यात्रा का हिस्सा है ।” माँ ने समझाया- “समाज सवाल करेगा ।” पूजा बोली- “जब शादी हुई, तब भी समाज ने कुछ नहीं निभाया, अब क्यों डरूं ?”
मंगलसूत्र अब उसकी आत्मनिर्भरता की निशानी था । सूना ज़रूर था, लेकिन बोझिल नहीं ।
१०. अलमारी का कोना
श्वेता को अलमारी का सिर्फ एक कोना मिला था- पति की शर्टों, माँ की साड़ियों और सास की पूजा की चीजों के बीच । उसमें उसने अपनी डायरी, दो किताबें और एक चिट्ठी छिपा रखी थी- खुद के लिए ।
एक दिन पति ने कहा- “घर में फैलाओ मत, जगह कम है ।”
श्वेता मुस्कुरा दी- “जगह नहीं चाहिए, बस पहचान चाहिए ।”
धीरे- धीरे उस कोने में किताबें बढ़ने लगीं, फिर एक लैपटॉप आया, फिर श्वेता का नाम एक लेख में छपा । अब अलमारी का कोना कम, दुनिया का दरवाज़ा ज़्यादा लगने लगा ।
प्रियंका सौरभ