कविता

मन के कागज़ पर
क्या मेरे टूटे मकान में वो फिर से आएँगे,
जिनके आते ही मेरे सपने रंगीन हो जाएँगे ।
वो आये और आकर चले गए,
मेरे मन में अपनी याद जगाकर चले गए ।
जब मैंने उन्हें विदाई दी तो उनकी याद आती थी,
जब आयी मैं अपने मिट्टी और पठालियों के–
बरसात में– रिसते–टपकते मकान में,
उन्हें छोड़कर वापस तो उसकी याद सताती थी ।
किचन–बाथरूम न कोई सुविधा जिसमें,
टीवी, फ्रिज, कम्प्यूटर न ही मोबाइल ।
चारों ओर घने पेड़ थे देवदार–अँयार के,
और मिट्टी पत्थर के उस घर में–
वह कुछ न था जो उन्हें चाहिए था,
पर मेरे उसी घर में सुख–शांति थे
जहाँ मैं आती थी खेतों से थककर,
खाती थी रोटी कोदे की–
घी और हरी सब्जी लगाकर,
दूध पीती थी मन भर कर और,
फिर सोती थी गहरी नींदें लेकर,
जबकि मेरे पास नहीं थे बिस्तर ।
मैंने सोचा शायद वे,
अपने घर चले गए ।
कुछ दिन बाद पता चला कि,
दो चार दिन सुविधाओं में कहीं और रुक गए ।
मैंने सोचा अब मैंने उनको भुला दिया,
पर उसकी यादों ने मुझको रुला दिया ।
अब सोचती हूँ यही रह–रह कर कि क्या ?
मेरे टूटे मकान में वो फिर से आएँगे ?
जिनके आते ही मेरे सपने रंगीन हो जाएँगे।
कविता भट्ट