अटकी ही रही दीठ
वह हिमगिरी-भाल-पीठ
मेरे ही आँसू के झीने पट ओट छिपी,
देखता रहा बेबस, दी नहीं दिखाई।
आँख भर देखा नहीं, आँख भर आई ।
पंक्ति-बद्ध देवदारु
रोमिल, शलथ, दीर्घ चारु
चंदन पर श्यामल कस्तूरी की गन्ध-सी
जलदों की छाया हिम शृंगों पर छाई ।
आँख भर देखा कहाँ, आँख भर आई ।
शिखरों के पार शिखर
बिंध कर दृग गए बिखर
घाटी के प्म्छी-सी गहरे मन में उतरी
बदरी-केदारमयी मरकत गहराई।
आँख भर देखा कहाँ, आँख भर आई।
जगदीश गुप्त