• २०८१ कातिर्क २४ शनिवार

विवाह

डिल्लीराम शर्मा संग्रौला

डिल्लीराम शर्मा संग्रौला

“कल भी आपकी आंखों में आंसू थे आज भी हैं । आप इस तरह क्यों रोते रहते हैं ?”
“पता नहीं क्यों ये आंसू गिरते रहते हैं ! बीमार पड़े हुए बहुत दिन हो गए फिर भी ठीक नहीं हुआ हूं । इस प्रकार से कैसे चलेगा ।”
“कुछ नहीं होगा, आप निश्चिंत रहिए । दो–चार दिनों में आप ठीक हो जाएंगे । दिलीप को सांत्वना देकर विद्या रसोईघर की ओर चली जाती है ।”
कुछ देर बाद विद्या रसोईघर से पानी और कुछ फल लेकर आती है ।
“विद्या !”
“जी ! कहिए ।”
“जरा मेरे पास आओ ।”
“क्यों, क्या बात है ?”
“तुमसे कुछ कहना है ।”
“कहिए, क्या बात है ?”
दिलीप आंखों में टिलबिल आंसू लिए विद्या को देखता रहता है जैसे फिर उसे कभी देखने का मौका नहीं मिलेगा । वह विद्या को करीब बैठने का इशारा करता है । विद्या उसके करीब बैठ जाती है । दिलीप अपने सिर को विद्या की गोद में रख कर एकटक उसके चेहरे की ओर देखता रहता है । दिलीप की ऐसी स्थिति को देखकर विद्या का नारी ह्रदय पिघल जाता है और आंखों में आंसू दिखाई देने लगते हैं । जैसे ही वह प्यार से दिलीप को देखने लगती है उसी पल उसकी आंखों के अश्रुबूंद दिलीप की आंख में टपकती है । विद्या ने दिलीप की आंख पोंछने के लिए हाथ बढ़ाया तो दिलीप ने विद्या का हाथ पकड़ कर कहा– “मत पोछो, मिलने दो इन आंसुओं को, रहने दो आंखों में कुछ पल आंसू, शायद अब इस शरीर का मिलन, आंखों का मिलन, आंसुओं का मिलन अंतिम भी हो सकता है ।”
“क्या कहते हैं आप ? आप ऐसी बातें क्यों करते हैं ? ऐसी बातें मत कीजिए । मुझे डर लगता है ।”
“डरने से क्या होगा ? और हां, मैं तुमसे एक बात कहने वाला था ।”
“कहिए न, क्या बात है ?”
“पहले वचन दो ।”
“क्या बात है कहिए न । वचन की क्या जरूरत ?”
“नहीं ,पहले वचन दो ।”
“ठीक है वचन दिया ।”
“मुझसे नाराज नहीं होगी न ?”
“नहीं तो ।”
“बुरा तो नहीं मानोगी ?”
“नहीं मानूंगी ।”
“सच ?”
“सच ।”

दिलीप विद्या के बालों को धीरे से बार–बार सहलाता है और करुण आवाज में कहने लगता है– “विद्या ! हालांकि इस दुनिया में अनेक प्रकार के लोग रहते हैं । सबके अपने अपने विचार होते हैं, अपनी अपनी मान्यताएं होती हैं । कोई पुरानी बातों तथा मान्यताओं से बिल्कुल डगमगाते नहीं, कोई इसे रूढ़ी एवं अंधविश्वास कहकर नकारते हैं, कोई परिवर्तन चाहते हैं कोई परिवर्तन नहीं चाहते हैं । मैं सभी पुरानी मान्यताओं को नहीं मानता हूं । और अभी तुम्हारी उम्र भी क्या हुई है, तुम द्दछ की तो हुई हो ।”
“क्या कहना चाहते हैं आप, स्पष्ट बताइए न ?”

दिलीप विद्या के हाथ को पकड़ते हुए कहता है – “बात यह है कि मेरे चले जाने के बाद तुम जिंदगी भर विधवा मत बैठना । मेरे मरने के बाद अगर तुम्हारे लायक या तुम्हें प्यार करने वाला कोई आया तो तुम अपने मन में किसी प्रकार का संकोच न रखना । मैं चाहता हूं कि मेरे मरने के बाद भी तुम्हारी मांग सुनी न रहे, सिंदूर से खिलती रहे, हाथ में रंग बिरंगी चूड़ियां खनखनाती रहे, और तुम लाल साड़ी एवं शृंगार से सजी–धजी रहना । मैं तुम्हें इसी तरह रखना चाहता था लेकिन रख नहीं सका । बस तुम्हारे बारे में सोचते सोचते इन आंखों से आंसू टपकते रहते हैं ।” विद्या घूंघट में अपना चेहरा छुपाती है और सिसक–सिसक कर रोने लगती है । दिलीप की बातें उसे पिघला देती हैं और एक अनुशासित नारी जो अपने पति को बहुत प्यार करती हो, जिसे वह अपना सब कुछ मानती हो, जिसे अपना मान कर सब कुछ समर्पण कर चुकी हो अगर उनके मुंह से इस प्रकार की बातें सुनकर उसके ह्रदय में क्या बिता होगा ?

कुछ देर तक सिसकने के बाद जब वह घूंघट से अपना चेहरा हटाकर दिलीप को देखती है तो दिलीप को चुपचाप सोया हुआ पाती है । वह गौर से देखती है और दिलीप को बुलाती है । लेकिन कोई जवाब नहीं आता । दिलीप सदा के लिए सो चुका था । इस तरह कि मानो उसने अपना बहुत ही महत्वपूर्ण काम सौंपा हो और अब उसे बेचैन होकर छटपटाने की जरूरत नहीं हो ।

विद्या उसके सिर को अपनी छाती में सटा कर जोर जोर से रोने लगती है । उसकी मर्मान्तक व्यथा को सुनकर आसपास के लोग इकट्ठा होने लगते हैं । उसकी चीत्कार को सुनकर एवं उसकी मासूम उम्र को देखकर वहां उपस्थित कोई भी बिना रोए बैठ न सका । कोई उसके अतीत का स्मरण करने लगा तो कोई उसके भविष्य को मांपने । लोग कहते थे कि इतनी अच्छी जोड़ी तो संसार में कम ही देखने को मिलती है । विवाह के वक्त चारों ओर से फुसुर फुसुर आवाज आती थी कि यह जोड़ी तो ईश्वर का वरदान है । वास्तव में जोड़ी अत्यंत सुहावनी थी । विद्या रूपवती, शीलवती, सुलक्षणी थी । और दिलीप ? वह भी विशिष्ट गुणों से संपन्न था, सुंदर था, बलिष्ठ भुजाओं से युक्त आकर्षक व्यक्तित्व था । लेकिन विधि का खेल कहा जाए या फिर क्या कहे ? एक जड़ की तरह पृथ्वी में पड़ा हुआ है और दूसरी भरपूर यौवन में विधवा बन गई है ।

कल विद्या की प्रशंसा करने वाले लोग आज उसे निंदा करने में जुटे हुए हैं । कल की रूपवती, शीलवती, सुलक्षणी विद्या आज कुरूप, डायन और कुलक्षणी बन गई है । समाज के लोग उन्हें प्रकार प्रकार की लांछना लगाने लगे हैं । लोगों का कहना था कि उसी के कुलक्षणों के कारण दिलीप का निधन हुआ है । उसी के कारण दिलीप की जान चली गई है‘…लेकिन मेरे मन में यह सब सुनने के बाद अनेक प्रश्न मंडराने लगे । क्या उसी के कारण उसका पति मर गया है ? क्या वह विधवा होना चाहती है ? क्या वह सफेद वस्त्र से अपना वन लपेटना चाहती है ? क्या वह श्रृंगार करना नहीं चाहती ? क्या वह समाज से लांचना सुनना चाहती है ? क्या वह अकेले रहना चाहती है ?‘‘

दिन बीतते गए । वह मरना चाहती थी लेकिन समाज उसे मरना भी नहीं देता था । समाज तो उसे जिंदा रखना चाहता था इसलिए कि विद्या उनके समय बिताने का साधन बने । उसके बारे में अनेक प्रकार की लांछना लगाते हुए समय व्यतीत करें । बेचारी वह घर का काम करती थी और मंदिर में जाकर फल–फूल, अर्घ्य अर्पण करती थी । वह लोगों से बात करना नहीं चाहती थी क्योंकि इस समाज के सारे लोग उसके दुश्मन थे । एक दो लोग उसके ऊपर सहानुभूति के शब्द प्रकट करते थे लेकिन उसे ये शब्द भी पीड़ा पहुंचाते थे । वह जो भी कहना चाहती थी उन शब्दों को ध्यान से सुनने वाली एक ही थी जो मंदिर के अंदर की मूर्ति थी । वह अपनी सारी वेदनाएं, शिकायतें उन्हीं को जाकर सुनाती थी और तसल्ली महसूस करती थी । अबकी विद्या पहले की नहीं है । पहले वह जिस तरह हंसमुख रहती थी आजकल इसके ठीक विपरीत उदास एवं मायुष रहती है । वह सीधा मंदिर जाती है फल, फुल, पानी आदि अर्पण करती है और घर के काम में लग जाती है । यही उसकी दैनिकी है ।

“मैं आपको इस मंदिर में अक्सर देखता हूं । क्या आप दैनिक आती हैं ?”
“हां,” वह बातें आगे बढ़ाना चाहती नहीं है क्योंकि उसने सुना था कि विधवा महिलाओं को आवारे युवक परेशान करते हैं ।
“खराब नहीं मानेगी तो मैं एक बात पूछूं ?”
“आप दूसरों से पूछिए । मैं जल्दी में हूं ।” वह सभ्य तरीके से उससे छुटना चाहती है ।
“मेरा काम आपसे है दूसरों से नहीं ।”
“क्या बात है पूछिए ? मेरे बहुत काम हैं ।”
“आप सोच रही होगीं कि मैं आपको चिढ़ाने जा रहा हूं । मैं आपको चिढ़ाने के लिए नहीं आपसे कुछ बातें करने के लिए आया हूं । मेरी बात सुनने की कृपा करें ।”
“देखिए, मैं एक विधवा हूं और मैं आपको जानती भी नहीं हूं । मुझे आपसे बातें करते लोग देखेंगे तो मेरा उपहास उड़ाएंगे और मेरा जीना दुश्वार होगा । कृपया आप चले जाइए ।”
“मुझे पता है आप विधवा हैं और विधवा जीवन कितना दुष्कर होता है यह भी मुझे अच्छी तरह पता है । और आप किस समाज की बात कर रही है ? इसका तो काम ही है लोगों को अच्छा बुरा कहना । आप इस से मतलब ना रखिए । मैं तो नहीं रखता हूं । मुझे समाज से मतलब नहीं आपसे है ।”
“लेकिन हम रहते तो समाज में ही है न ?”

“हां, समाज में ही रहते हैं और हम आप मिलकर ही बना हुआ है यह समाज । समाज का काम केवल दूसरों को उपपास करना नहीं, बल्कि दूसरों को सहयोग करना भी है । समाज हमारे विपद के दिनों में काम नहीं आता तो हम फिर समाज से क्यों डरे ? देखिए समाज क्या सोचता है यह उसका काम है । पर हमें अपनी जिंदगी के बारे में सोचना चाहिए । जब समाज हमें खुशी प्रदान नहीं कर सकता है तो समाज को हमें दुख देने का अधिकार भी नहीं है ।”

“मैं नहीं जानती यह सब । मुझे देर हो रही है मैं जा रही हूं ।”
“लेकिन एक बात सुनते जाइए । अगर आप सहमत हैं तो मैं आपका हाथ जीवन भर पकड़ने के लिए तैयार हूं ।”
यह बात सुनते ही विद्या उस अपरिचित युवा को एकटक देखती रहती है जैसे वह उसे पहले से जानती हो और इस आवाज से परिचित हो ।

“आप मुझे क्या सोचते हैं ? आपको इस प्रकार से बातें करते हुए शर्म नहीं आती ? क्या आप मुझे ऐसी वैसी लड़की सोचते हैं ? भले ही मैं विधवा हूं लेकिन मैं अपने को सुहागिन मानती हूं । मैं किसी की सुहाग थी, हूं और रहूंगी । क्या विधवाओं को अपने पति के मरते ही किसी दूसरे मर्द के साथ विवाह करना जरूरी है ? आप आइंदा ऐसी बातें न करें । आप बहुत खराब आदमी है ।” विद्या ने आंखों में आंसू लिए कहा । विद्या की बातें सुनकर वह बहुत दुखी हो जाता है । उसने सिर्फ अच्छा दिखने के लिए या फिर महान बनने के लिए यह प्रस्ताव नहीं रखा था । वह हृदय से विद्या को चाहता था और उसके मन में विद्या के प्रति पवित्र प्रेम था । विद्या की सुंदरता और यौवनावस्था वास्तव में लुभावनी थी । लेकिन उस अपरिचित युवक ने सिर्फ अपनी प्यास बुझाने के लिए उसे यह प्रस्ताव नहीं रखा था । उसे देखकर उसके मन में प्यार जगा था और वह विद्या को अपना जीवन साथी बनाने के लिए तैयार हो गया था । उसे चाहने वाली कई लड़कियां थीं और कई करोड़पति बाप अपनी बेटी का हाथ उससे थमाना चाहते थे लेकिन उसने अस्वीकार किया था क्योंकि वह मानता था कि जीवन बिताने के लिए पवित्र प्रेम की आवश्यकता होती है न कि पूंजी की ।

“देखिए मैंने आपको दुखी बनाया । वास्तव में मैं बहुत खराब आदमी हूं क्योंकि मेरे कारण आपकी आंखों से आंसू बह रहे हैं । मुझे दुख है कि मैंने आपको रुलाया । मुझे माफ कर दीजिए । मैं हाथ जोड़ता हूं । माफी पाते ही मैं यहां से चला जाऊंगा और आइंदा ऐसी हरकत नहीं करूंगा, आपको परेशान नहीं करूंगा । आपको अपने मुंह से कहना है कि माफ कर दिया ।”
अपरिचित युवक हाथ जोड़कर खड़ा रहता है इसी अपेक्षा से कि विद्या उसे माफी दे । विद्या अपलक उस युवक को देखती रहती है । कुछ क्षण के पश्चात वह उन जुड़े हुए हाथों को पकड़कर अपने मस्तक पर रखते हुए रोने लगती है । वह फफक फफक कर इस तरह से रोती है कि मानो कोई अपना सबसे प्यारा खोया हुआ आदमी बहुत सालों के बाद मिला हो । अपरिचित युवक उसे सांत्वना देते हुए अपने बाहुपाश में लपेट लेता है । उसके बाल सहलाता है, पीठ थपथपाता है, सहानुभूति देता है, साथ जीने मरने का वचन देता है ।

तब विद्या कहती है – “मैं दोबारा विवाह करना नहीं चाहती थी । मैं इसी तरह मंदिर में फूल अर्पण कर शेष जीवन बिताना चाहती थी, लेकिन उनको दिए गए वचन में बंध कर मुझे आपकी बात माननी पड़ी । आपकी आवाज मुझे उनकी आवाज सी लगी ।”


डिल्लीराम शर्मा संग्रौला (9841826656)