“तुम कवि हो ?“
– नहीं
“कविता हो ?“
–नहीं
“फिर ?“
कवि नहीं कविता नहीं
सीमाओं की सीमाना नहीं
मैं वो नहीं,
जो तुम कहते हो
मैं वो भी नहीं
जो तुम सोचते हो
मैं तो वो भी नहीं जो तुम देखते हो
“फिर कौन हो तुम और
रहते कहां हो ?“
मैं..
मै तुम्हारे ही भीतर रहता हूँ
तुम्हारे नसों में लहू बन नदी सा बहता हूँ
मैं तुम्हारे होठों पर,
कभी हंसी बनकर आता हूँ
तो कभी आंखों में नमी बनकर ठहर जाता हूँ
तो कभी हंसता हूँ ठहाके मार कर
पर
तुम मुझे देख नहीं पाओगे
सुन भी नहीं पाओगे
लेकिन,
मैं मौजूद हूँ
यहीं कहीं
तुम्हारे आस पास
हर जगह हर समय
मैं मौजूद हूँ
क्यों की मै तुम हूँ
मैं तुम्हारा वजूद हूँ
मैं तुम्हारा जÞमीर हूँ ।।।।
नाज सिंह, मास्को, रुस