• २०८० असोज ८ सोमबार

पंत की कविता में बिछोह की अद्भुत प्रतिध्वनि है

 डा. श्वेता दीप्ति

डा. श्वेता दीप्ति

सुमित्रा नंदन पंत छायावाद के चार प्रमुख हस्ताक्षरों में से सिरमौर थे । सौंदर्य के अप्रतीम कवि प्रकृति उनके विशाल शब्द–संसार की आत्मा है । पंतजी का जन्म २० मई १९०० में अल्मोड़ा के कौसानी गांव में हुआ था । जन्म के कुछ समय बाद ही उनकी मां चल बसीं । सात साल के होते–होते उन्हें शिद्दत से एहसास हुआ कि वह मां की ममता से वंचित हैं । इसी उम्र में उन्होंने पहली कविता लिखी । इसमें बिछोह की अद्भुत प्रतिध्वनि है । वे असाधारण प्रतिभा से सम्पन्न साहित्यकार थे । काव्य के भाव एवं कला, दोनों ही क्षेत्रों के माहिर कवि थे । छायावाद के युग–प्रवर्तक कवि के रूप में उन्हें अपार प्रसिद्धि, प्राप्त हुई है । उन्हें प्रकृति–चित्रण एवं महर्षि अरविन्द के आध्यात्मिक दर्शन पर आधारित रचनाओं का श्रेष्ठ कवि माना जाता है ।

वे सौन्दर्य के निरन्तर निखरते सूक्ष्म रूप को वाणी देने वाले और सम्पूर्ण युग को प्रेरणा देने वाले प्रभाव–शिल्पी भी हैं । छायावादी कवि सुमित्रा नंदन पंत प्रकृति के सुकुमार कवि कहे जाते हैं । उनके काव्य में प्रकृति सुंदरी की मनोहर छवियां अंकित की गई है । वे कोमल कल्पना के कवि हैं और अपनी सुकुमार कल्पना के बल पर प्रकृति का ऐसा अनुपम चित्रण करते हैं कि समग्र दृश्य पाठकों के समक्ष साकार हो जाता है ।

प्रकृति ने कवि को अनंत कल्पनाएं, असीम भावनाएं एवं असंख्य सौंदर्य अनुभूतियां प्रदान की है । वे स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि कविता करने की प्रेरणा मुझे प्रकृति निरीक्षण से प्राप्त हुई है । उनकी स्कूली शिक्षा अल्मोड़ा में हुई और उसके बाद बड़े भाई देवीदत्त के साथ काशी के क्वींस का‘लेज में दाखिल हुए । तब तक उनका कवि अक्स निखरकर सार्वजनिक हो चुका था । कविता छायावादी थी, लेकिन विचार मार्क्सवादी और प्रगतिशील । गुरुवर रवींद्रनाथ टैगोर तक ने उनकी कविताओं का नोटिस लिया । मां की ममता से वंचित और प्रकृति को अपनी मां मानने वाले पंत 25 वर्ष तक केवल स्त्रीलिंग पर कविता लिखते रहे । उनके दौर में हिंदुस्तान में ’नारीवाद’ तो नहीं था, लेकिन नारी स्वतंत्रता के पक्ष में आवाज उठती थीं और इनमें एक हस्तक्षेप कारी बुलंद आवाज सुमित्रा नंदन पंतकी भी थी । उन्होंने कहा था,’ भारतीय सभ्यता और संस्कृति का पूर्ण उदय तभी संभव है, जब नारी स्वतंत्र वातावरण में जी रही हो । ’एक कविता में उन्होंने लिखाः ’मुक्त करो नारी को मानव, चिर वन्दिनी नारी को… युग–युगकी निर्मम कारा से, जननी सखी प्यारी को…।’

आर्थिक बदहाली के चलते उनकी शादी नहीं हुई । ता उम्र अविवाहित रहे । नारी उनके समूचे काव्य में विविध रूपों– मां, पत्नी, प्रेमिका और सखी में मौजूद है । नारीत्व उनके वजूद–व्यवहार का स्थायी हिस्सा था । पंतजी स्वभाव से बड़े ही सुकोमल और शांत स्वभाव के व्यक्ति थे, इसलिए उनके काव्य में हमेशा ही कोमल भावों काही चित्रण और उनका वर्णन दिखाई देता है । सुमित्रा नंदन पंत का संपूर्ण जीवन प्रगति की गोद में ही व्यतीत हुआ है, इसलिए उन्होंने प्रकृति चित्रण, प्रेम, सौंदर्य आदि को अपने काव्य में प्रमुख स्थान देते हुए उनका मानवीकरण करते हुएअपनी रचनाओं में वर्णन किया है अतः प्रकृति से अधिक लगाव होने के कारण सुमित्रा नंदन पंतजी को प्रकृति का सुकुमार कवि के नाम से भी जाना जाता है ।

सुमित्रा नंदन पंत ने भारतीय लोगों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करने के लिए कई प्रकार की वीर रस की रचनाएँ प्रदान की जबकि वे दार्शनिक विचारों वाले व्यक्ति थे, इसी से संबंधित विभिन्न रचनाओं में उनके ईश्वर जगत तथा दार्शनिक विचारों से संबंधित रचनाएँ देखने को मिलती हैं । कविवर सुमित्रा नंदन पंत हिन्दी के उन कवियों में से एक हैं जिनकी कविता का स्वर समय के साथ– साथ बदलता रहा है । उनकी प्रारंभिक कविताएं प्रकृति सौन्दर्य और प्रकृति प्रेम से सम्पन्न छायावादी कविताएं थीं, परन्तु बाद में उनकी कविता ने प्रगतिवाद का रास्ता पकड़ लिया और शोषण का विरोध करने वाली ऐसी कविताएं लिखने लगे जिनमें यथार्थ बोध पर पर्याप्त ध्यान दिया गया है ।

उनके काव्य विकास का तीसरा चरण अन्त श्चेतनावाद युग के रूप में सामने आया जिसमें उनकी कविता अरविन्द दर्शन से प्रभावित रही है । पन्त के काव्य विकास का अन्तिम चरण नव- मानवतावादी युग के रूप में जाना जाता है जिसमें कवि ने नव- मानवता का संदेश सुनाया है । सुमित्रा नंदन पंत के काव्यकी भाषा संस्कृत निष्ठ तत्सम युक्त परिमार्जित खड़ी बोली है । उन्होंने अपने काव्य में ओज और माधुर्य गुण का बड़ी ही सरलता से प्रयोग किया है । सुमित्रा नंदन पंत ने अपने काव्य में प्रमुख रूप से मानवीकरण, रूपक, उत्प्रेक्षा अलंकार के साथ ही उपमा अलंकार का प्रयोग किया है, जिससे उनकी रचनाओं में अनुपम सौंदर्य उत्पन्न हुआ । वहीं उन्होंने वीर रस, शांत रस आदि के माध्यम से अपने काव्य को परिमार्जित करके अलौकिक बना दिया है ।


(डा. श्वेता दीप्ति त्रिभुवन विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की उप-प्राध्यापक हैँ)
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