• २०८१ भाद्र २७ बिहीबार

छोटका पंचानन

प्रो (डा.) प्रतिभा राजहंस

प्रो (डा.) प्रतिभा राजहंस

हा–हा, ही–ही, हो–हो, हँसी की अलग–अलग ध्वनियों से गुंजायमान इनारे पर का दृश्य कितना सजीव था, कहना संभव नहीं था, न चित्र उतारना ही । चूडÞियों की खनखनाहट और पायलों की रुनझुन भी साथ दे रही थी । कोई कपड़े धो रही थी तो कोई हाथों–पैरों की मैल छुड़ा रही थी, कोई मुँह पर साबुन मलती फू–फूकर साबुन का झाग उड़ा रही थी और कोई स्नानोपरांत अपनी रंगबिरंगी साड़ी की प्लेट बनाती मन–ही–मन कोई श्लोक पाठ कर रही थी । इनारे पर लगे डंडे–खंभे से लटकती बाल्टी से राधा दीदी पानी भरती हुई उन्हें झिड़क थी-’ हो गया ही–ही । अब जल्दी नहाकर अपने–अपने कपड़े उठाओ । इधर से पानी बहेगा तो गंदे पानी से तुम्हारे धुले कपड़े गंदे हो जाएँगे । ई छौड़ी सब नहाती नहीं है । खेल–खेलौड़ में लगी रहती है रोज ।’

डरी हुई निर्मला, उर्मिला का हाथ पकड़ दीदी की आँखें बचाते हुए धीरे–से नीचे उतर गई । नहा चुकी थीं दोनों । दोनों के दोनों हाथों में पानी की भरी बाल्टी थी । पूजा करके आते ही चूल्हा सुलगाना होगा । रसोई करने के लिए इनारा पर फिर से कौन आए पानी भरने । इधर इंद्राणी और चन्द्राणी साड़ी बाँध चुकी थीं । बाल पीठ पर फैलाए वे दोनों भी पीछे–पीछे चल पड़ीं । प्रमिला देवयानी और कात्यायनी को चलने का इशारा कर चुकी थी ।

रंभा दीदी ने राधा दीदी की ओर देखा । राधा दीदी जानती थी कि उनकी हमजोली प्यारी बहन मुँह से बोले बिना ही अपनी बात कह देती है । जल्दी से पानी में पैर छपछपाती साड़ी संभालती हाथ पकड़कर चल पड़ी । छोटी बहनें पहले ही सामान ले जा चुकी थीं । वह साबुनदानी, नील की डिब्बी आदि छोटे सामान लिए हँसती–खिलखिलाती सखी रंभा के कन्धे पर हाथ रखे चल पड़ी । राधा दीदी की चाल और हाव–भाव देखकर कोई दूसरा भी सहज ही पहचान लेगा कि यही लीडर है उस छोटी कन्या–मंडली की । रानीवत चाल, बोली की ठसक और सुंदर पहनावा उसकी विशेषता थी । लड़कियों की बात तो छोड़ो, घर के बड़े भी राधा दीदी की बात के कायल थे । मान करते थे उसका । सुंदर, गोरी, छरहरी, फूल जैसी खिली–खिली, लंबी चोटी वाली सत्रहवर्षीया शादीशुदा लड़की ।

अपनी–अपनी साजी उठाकर काली स्थान की तरफ चल पड़ी लड़कियों की मंडली । एक– से–एक सुंदर । गाती–गुनगुनाती, हँसती–हँसाती ग्यारह से चौदह साल की, खिले फूलों के गुच्छे–सी, सुंदर–सुशील, मोहक, लड़कियों की मंडली । गाँव के रास्ते के लोग पंडितजी बाबा के आँगन की इन लड़कियों को प्यार और आदर से देखते थे । काली स्थान पहुँचते ही सभी ने इनारे से भरी बाल्टी खींच–खींचकर अपने पैर धोए । फिर, घडों में पानी भरकर स्थान को धो–पोछकर साफ–सुथरा कर दिया । पन्द्रह घड़ा पानी भी कम पड़ता था स्थान को साफ करने में । कुछ महावीर स्थान और कुछ बाकी स्थानों को साफकर अपनी–अपनी साजी उठाकर पूजा करने को चल पडीं । इनारे पर बची दो सहेलियों में–से एक ने कहा- ’हमरो बायां आँख फड़के छै जी ।’ दूसरी ने झट से उत्तर दिया- ’तोरो बीहा होथौं आय जी । भैया गेलो छौं नी लड़का लानै ले ।’

सरल–सहज प्रश्न का वैसा ही उत्तर । उर्मिला लजा गई । आज निर्मला की शादी है । शाम में बारात आने वाली है । पर, उम्र में उर्मिला उससे तीन महीने बड़ी है । घर भर को इस बात की चिंता है । खासकर उसकी माँ को चिंता से सही साँझ अपनी खटिया अगोर लेती है माँ । ’तेरह वर्ष की हो गई है मेरी उर्मिला और अब तक शादी नहीं हो पाई है । न पास में इतना पैसा ही…’खटिया पर लेटी माँ सोच के सागर में डूब–उतर रही थी । तभी कहीं से गाँव की सवासिन खबर लेकर आई कि पास के गाँव का एम.ए.पास सुंदर लड़का उर्मिला से शादी करना चाहता है । डोरा पर्व के दिन उर्मिला को उसके पिता देख चुके हैं और पसंद भी कर चुके हैं ।

प्रस्ताव पाकर माँ खुश हुई और बड़के भैया तो उछल ही पड़े । वे लड़के और उसके परिवार को जानते थे । साथ ही तो पढ़ता था लड़का । टी.एन.जे.कॉलेज में । सुंदर और सुशील । मेधावी भी । जोश से भरपूर देश-दुनिया की हर खबर से अवगत । यह लड़का कितना आकर्षित करता था उन्हें । उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे बहनोई बना पाएँगे . कहाँ से दे पाएँगे उसके लायक दहेज ? और आज स्वयं उसी लड़के की लिखावट में लिखी विवाह–प्रस्ताव की चिट्ठी । गदगद हो उठे भैया । चार हजार लायक लड़के ने मात्र ग्यारह सौ रूपये की माँग की थी । वह भी अपने लिए नहीं । गाँव में बन रहे पुस्तकालय हेतु चन्दा देने के लिए । भैया के मन में आदर और गौरव का भाव भर गया । यद्यपि देने के लिए घर में पैसे नहीं थे । पर, इतना अच्छा लड़का छोड़ा भी तो नहीं जा सकता था । माँ–बेटे ने रातों–रात दस कट्ठा जमीन को बंधक रख काका से पैसे उठाए तथा आनन–फानन में गाड़ी बंधाने लगे । पर, बाबू खुश नहीं थे । कहते थे- ’अपने से शादी का प्रस्ताव भेजने वाला लड़का अच्छा नहीं हो सकता । जरूर आवारा होगा । कहीं मनमौजी न हो । मेरी बेटी को दुख देगा । नह्, ऐसे लड़के से शादी ठीक नहीं । ’वे भैया को बरज रहे थे । पर, भैया माने ही नहीं । उन्हें लड़के पर पूरा भरोसा था ।

सुबह तड़के ही पैसे कुर्ते की जेब में रख बैलगाड़ी पर सवार होकर निकल पड़े थे । निर्मला ने उर्मिला को यही बात याद दिलाई । उर्मिला कुछ नहीं बोली । दोनों माता को स्मरण कर काली स्थान की ओर बढ़ चलीं । ….’हे काली माय! तोहें सहाय हुओ मैया । भैया जत्ते खुशी सें गेलो छै, ओत्ते खुश होलो लौटे । एम.ए.पास कोई जमाय नै छै हमरा घरो में । हे….हे माता….! आरो जों हुनी एम.ए. पास छै त हुनियो बड़का भैया रं प्रोफेसर बने पारे । आरो तबे हम्में भी…हे काली माय..’ संपूर्ण शरीर रोमांचित हो उठा उर्मिला का । तत्क्षण याद आया, जाते समय पंचम भैया का गौरांग स्वरूप । गंभीर मुस्कुराहट लिए आनंदित भैया ने बैलगाड़ी पर चढ़ते–चढ़ते ही कहा था- ’हम्में तोरो दुलहा लानै ल जाय छियौ’ । और इतवारी की हो–हो की आवाज सुन गोलू–कैलू बैल गाड़ी को खींचते आगे बढ़ चले ।

भावों से भरकर उर्मिला ने एक बार सामने काली जी की पिंडी को देखा तो लगा कि काली माँ साक्षात् दर्शन दे रही हैं । दर्शन पाकर नेत्र मूँद लिए उसने । तभी रामलीला के किशोरवय श्री रामचंद्र का स्वरूप दीख पड़ा बंद आँखों में । कुछ क्षण निहारती रही । फिर मन–ही–मन काली माँ से बोली- ’माता इसी सुपुरुष को वरण किया है मैंने । हे माँ, इन्हीं को पाने के लिए मैं पिछले दो वर्षों से अनवरत आपकी सेवा में हूँ । माँ मेरे बाबू बीमार हैं और रिक्तहस्त भी । इसीलिए तो आज मुझसे पहले छोटी बहन की शादी हो रही है । हे माता, मेरे गरीब माता–पिता की लाज रख लो माँ । मैं आपके समक्ष शपथ लेती हूँ कि जिस तरह पिछले दो वर्षों से उगते सूर्य को अर्घ्य दे रही हूँ, उसी तरह आजन्म दूँगी । आपकी भी सेवा पूजा करूँगी ।’

नेत्र मुद्दे मन–ही–मन माँ की आराधना करती उर्मिला को निर्मला ने छू दिया और ध्यान भंग हो गया । हँसकर बोली निर्मला- ’धीरज धरो सखी! पैल्हे तोरे बीहा होथौं जी ।’ बीच में ही उठ खड़ी हुई उर्मिला । हाथ पकड़कर सखी को भी उठा लिया ।

’जल्दी चलोक जी’ ।

निर्मला को तो रोक दिया उर्मिला ने । पर, उसका अपना मन कहाँ रुका ? वह तो बहुत तेजी से भागता भैया की बैलगाड़ी का पीछा कर रहा था । हृस्ट–पुष्ट शरीर और गुलाबी गोराई वाला भैया का प्रसन्न मुख साकार हो गया । उसे कुछ वर्ष पहले की घटना याद हो आई, जब भैया की उजली धोती और कुर्ता देखकर अचानक ही बोल पड़ी थी- ’हम्में खूब पढबै । हम्में छोटका पंचानन बनबै ।’

आँगन में बैठे परिवार के सभी लोगों ने चौंककर उसकी ओर देखा । बड़का काका–काकी, छोटका काका–काकी, माँ–बाबू, भैया–भौजी और दर्जनभर आँगन के बच्चों ने भी । पंचानन बनने का मतलब था एम.ए. । पास कर प्रोफेसर बनना । यहाँ गाँव में रहकर बेटी जात का पढ़ना संभव कहाँ था? जब घर में बेटे पढ़ने वाले हों और उनके लायक ही संसाधन पूरा न पड़ता हो तो बेटी पढ़ाने की बात सोच भी कैसे सकता है कोई । पर, भैया यह सुनकर आह्लादित हो उठे । बोल पड़े- ’हों कैन्हें नै । तोरा छोटका पंचानन जरूर बनैबौ ।’

भागलपुर के टी.एन.जे. कॉलेज से पढ़े–लिखे भैया की भी शायद लालसा थी कि उनके घर की लड़कियाँ पढ़ें और आगे बढ़ें । आजाद हिंदुस्तान में स्त्री–शिक्षा हेतु वर्जनाएँ टूट रही थीं । अखिल भारतीय स्तर पर भी देश की महिलाओं की उपस्थिति बढ़ रही थी । अखबारों में, बातचीत में इंदिरा नेहरू को देखकर, उनकी राजनीतिक छवि से लोग प्रभावित हो रहे थे ।

उस दिन से मेरे प्रति भैया के भाव बदल गए थे । पर, विधाता को मंजूर नहीं था यह । पारिवारिक कारणों से अचानक ही माँ ने अपनी टीचर की नौकरी छोड़ दी । जिन देवर–देवरानी के ऊपर उन्हें सबसे अधिक भरोसा था, उन्होंने माँ का बड़ा परिवार देखकर जमीन–मकान मनमाने ढंग से बाँट लिया और जानें क्यों बाबू की महीने की तनख्वाह अनियमित हो गई । घर का सारा भार बड़े भैया पर आ गया । यह भौजी को मंजूर नहीं था । घर का वातावरण बिगड़ने लगा ।

भौजी को लगता कि उनकी उम्र रसोई में ही बीत जाएगी और हमारे सार–संभाल में भैया कंगाल हो जाएँगे । अति संवेदनशील बाबू ने मामला संभालने की गरज से हम बहनों को स्कूल छुड़ाकर घर के कामकाज में लगाना सही समझा । स्वभाव से गंभीर बड़ी दीदी भी हमें संकेत से समझाती कि भौजी को खुश रखना जरूरी है । तभी भाइयों की शिक्षा पूरी हो पाएगी । चिंतन में डूबी उर्मिला की याद में आज सुबह का भैया का मुस्कुराता चेहरा फिर से उभर आया । वह सोचने लगी- ’अवश्य मेरा दूल्हा मेरी और भैया की लालसा पूरी करेगा ।’

मन पुलकित हो गया । दिन–भर अपनी सखी और चचेरी बहन निर्मला के विवाह के विधि–विधान में शामिल उर्मिला के मन में द्वंद्व चलता रहा । ’क्या आज मेरी भी शादी होगी ? भैया गए तो हैं रुपए लेकर उनकी चिट्ठी के अनुसार । अवश्य होनी चाहिए शादी । लेकिन, ऐसे कैसे होगी शादी भला ? बस, एक चिट्ठी पर ? न कोई बर–बरतुहारी, न देखा–सुनी, न तिलक–बरन और कन्या निरीक्षण ही ऐसे शादी होती है भला ? बाबू ठीक ही बिगड़ रहे थे माँ और भैया पर । उन्हें डर है कि लड़का आवारा होगा । कहीं बात से मुकर ना जाए । अच्छा हुआ जो माँ हल्दी उबटन की तैयारी नहीं कर रही हैं । हल्दी लगी लड़की का ब्याह न हो पाए तो हँसेंगे ही गाँव- घर के लोग ।’

आँगन में निर्मला को उबटन लगाया जाना देखकर गीत गाती उर्मिला का मन चिंता के भँवर में गोल–गोल घूम रहा था । बीच में ही उठकर अपने आँगन आई । यहाँ माँ ने घर से दरवाजे तक लिपवा रखा था, एक जन आँगन में नए रंगे अंटिया से मंडवा छा रहा था और उसने गोसाईं घर में नई रंगी पीली धोती से ढँका वही सब सामान देखा, जो निर्मला के यहाँ अभी–अभी देख आई थी । बस, सिर्फ नाच–गान, हँसी–मजाक और सवासिनों की दिल्लगी नहीं थी । उर्मिला जैसे चुपके से गई थी, वैसे ही लौट आई और शामिल हो गई शादी के काज–परोजन में । पर, मन आधा इधर था तो आधा उधर ।

उसे याद आया कि सामान जुटाने का मतलब है माँ को वहाँ से बारात आने की खबर हो गई है । बटगमनी के गीत गाती औरतों के झुंड के साथ लगहर भरने काली स्थान की ओर जाती उर्मिला को लगा कि बड़गाछ चौक पर खड़ा कोई अनजान युवक उसकी ओर देख रहा है । सकुचाकर वह झुंड के बीच में चली गई । पर, वह तो शायद झुंड के पीछे पीछे चल रहा था । लगहर भरकर सभी इनारा पर से चलने को थीं । दुर्गा और उर्मिला बाल्टी और डोरी समेट ही रही थीं कि उसी युवक ने पूछा–– ’पंचम जी की बहन कौन है ?’

’हम सभी हैं । क्यों आपको किससे काम है ?’

चुटकी लेती हुई उसकी फुफेरी बहन चुलबुली दुर्गा बोल पड़ी ।

’जिसकी शादी होने वाली है आज ।’

’वह? वह तो गई । वही औरतों के झुंड में सबके साथ ।’

युवक ने घूमकर उस ओर देखा । ’पर, वह तो साँवली है और माँ बोली थी कि लड़की खूब गोरी है ।’ सोचते हुए घूमकर बोला वह- ’वह पंचम जी की बहन है ?’ ’बारात कहाँ से आ रही है ? आज उसकी शादी है ?’
’उर्मिला की भी आज ही शादी है । भैया गए है न दूल्हा लाने ।’
कहती हुई दुर्गा ने तर्जनी उठा दी उर्मिला की ओर । युवक ने भरपूर नजर डाली उर्मिला पर । वह अपने गोरे–गुलाबी छोटे–छोटे पैरों पर बाल्टी में बचा पानी डाल रही थी ।
’मुझे बड़ी प्यास लगी है । पानी पिलाएँगी ?’
कमर तक फैले लम्बे काले बालों में लगे गुलाब के फूल पर नजर गड़ाए युवक ने दोनों हाथ मुँह के पास लगा लिए । उर्मिला ने झट से इनारे से भरकर पानी खींचा और पिलाने लगी । औरतों का झुंड आगे बढ़ता जा रहा था । बाल्टी–डोरी लिए भागकर दोनों लड़कियाँ उसमें शामिल हो गईं ।

शाम से रात्रि की ओर जाती बेला में वे वापस अपने दरवाजे पर पहुँची तो पेट्रोमैक्स की रोशनी में ढोल–ढाक और शहनाई निर्मला के दरवाजे के बदले उर्मिला के दरवाजे पर बज रहा था । भौजी लपककर आई और उर्मिला को भरपांजा पकड़कर अपने आँगन की ओर चल पड़ी । कुछ देर पहले जो सवासिनें निर्मला के आँगन में गीत गा रही थीं, सभी यहाँ उर्मिला के बड़का आँगन में जुट आई थीं । रंभा और राधा दीदी उसे पीली साड़ी–ब्लाउज पहनाकर उबटन का टीका माथे पर लगाकर हाथों और पैरों को भी हल्दी–उबटन से पीला करने में लगी थीं । परिवार के सारे कुटुंबियों की महफिल साझे दरवाजे पर जमी थी । हँसी–ठहाके गूँज रहे थे । माँ परिछन का थाल सजा चुकी थीं । पर, ऐसे उच्च शिक्षित वर से दो बातें कर लेने की लालसा से युवक उन्हें घेरे हुए थे । तभी भैया ने बेली और गुलाब से सजी क्यारियों के पास कुर्सी लगवाई । इनारे के बाहर गोलाई में सजे केले के हरे, लंबे, पत्ते मंद हवा में झूम उठे । मंगलगान करती महिलाओं ने सब ओर से दूल्हे को घेर रखा था । बीच में माँ आरती का सजा थाल लेकर पहुँची । माँ के एक और भौजी तो दूसरी ओर राधा और रंभा दीदी हँसी–ठिठोली करती हुई । साली–सलहज दूल्हे की खिंचाई में लगी थीं । ’आखिर कौन–सी लगन लगी कि शादी–पूर्व के सभी विधि–व्यवहार को छोड़कर बिन बुलाए श्रीरामचन्द्र सीधे धनुष–यज्ञ में ही आ पहुँचे ।’

आनंद से मंगलमय हो उठे वातावरण में सारे विधान पूराकर शादी संपन्न हुई । माँ, भैया–भौजी, दीदी–जीजाजी, काका–काकी सहित सब को प्रसन्न देखकर और ससमय सब कुछ संपन्न होने पर, बाबू साश्रु नयन आ खड़े हुए, नव वर–वधू को आशीष देने । दादी और बाबा तो शाम से ही लगे रहे थे । निर्मला की बारात द्वार लग रही थी । ढोल–ढाक और शहनाई की आवाज करीब आ रही थी । नववधू अपनी बनारसी साड़ी संभालती द्वार की ओर दौड़ पड़ने के लिए उठ खड़ी हुई । भला, अपनी सखी की बारात और उसका दूल्हा कैसे न देखती ।


प्रो (डा.) प्रतिभा राजहंस, भागलपुर, बिहार, भारत