• २०८१ असोज २९ मङ्गलबार

विदा

अखिलेश श्रीवास्तव

अखिलेश श्रीवास्तव

जहाँ जीवन सतह पर नहीं है
दबा हुआ है आवरण के नीचे
वहाँ ज्यादा निश्चिंतता है
जब पहाड़ विदा करते हैं स्
कल–कल करती नदी
तो नदियाँ रोती–पीटती लौट आई हों
ऐसा कभी नहीं हुआ
पिता पहाड़ नहीं होते
पर चाहते हैं कि

बेटियाँ नदी हो जाएँ
कल–कल बहें
गर चिरई भी हो जाएँ
तो भी चहचहाते हुए लौटें
पंखों में बिना कोई घाव लिए हुए
घर बेटियों के जाने से उतना नहीं डरता
जितना उनके अकेले लौट आने से डरता है
पर वे लौटती हैं जब चोंच में तिनका दबाए हुए
तो उसी एक तिनके के भार से भरभरा कर ढहने लगता है घर
बेटियाँ विदा हो जाती हैं
उनके विदा करने के सपने और बड़े होकर लौटते हैं
रंग बदलकर खटखटाते हैं दरवाज़ा
हकबका कर उठ बैठता हूँ
पर सपने की ढिठाई देखो
इतना बुरा है कि जगने पर भी टूट नहीं रहा ।


अखिलेश श्रीवास्तव
गोरखपुर, उत्तरप्रदेश, भारत