• २०८१ फागुन ६ मङ्गलबार

प्रेम

वसु गंधर्व

वसु गंधर्व

मैंने कहा अलविदा की अपनी भाषा में तुमसे प्रेम
तुमने आवेगों के तीव्रतम सिरों पर उसे सुना

एक ही समय
अपरिचय को परिचय में बदलता एक नगण्य–सा शब्द

प्रकृति के जिस अनगढ़ मौन से नदियाँ सीखती हैं अपने मीठे गीत
अकेलेपन की वे निस्तेज ध्वनियाँ
जो सूर्य के ताप से दूर
चंद्रमा का अंधकारमय मुख बुदबुदाता है

भूलने की अपनी भाषा में मैंने कहा प्रतीक्षा
तुमने उसमें क्रूरताओं की अलक्षित गहराइयों को सुना
मल्लाहों के हृदय की क्षीण धड़कनों में दबे
डूबने के उनके भय को सुना
अलविदा की अपनी भाषा में मैंने फिर से कहा प्रेम
जब तक उन्माद ढल गया विक्षिप्तता में
जब तक विक्षिप्तता हुई नक्षत्रों का ज्वार
दुहराने की अपनी भाषा में मैं कहता रहा प्रेम ।


वसु गंधर्व
अम्बिककापुर, छतीसगढ, भारत