समाचार

घर में खेतों में खलिहानों में
जो मेरा हाथ बटाता था
हर कोई वह मधेसी होता था
मै पहाडी हूँ मुझे फक्र है
मेरे अन्दर एक मधेसी रहता है
बात तुम्हें कुछ लगे अटपटी
पर सच कहना बहुत जरूरी है ।
उत्सव और त्योहार साथ हमने मनाये हैं
होली में जोगिरा साथ हमने गाएं हैं
घर में माई पहाडी है बाहर मधेसी बुआ है
बचपन से ही दोनों ने भरपूर हमें दुलारा है
ये बात न निरी–लफ्फाजी है
पर सच कहना बहुत जरूरी है।
जो सियासत चला रहा है पहाडी और मधेसी का
खूब समझते हम उनकी यह रोजीरोटी है
लोग बिकते हैं जो अवसरबादी मण्डी में
इशारों पर चलना उनकी तो मजबूरी है
हम तो कवि हैं पर विद्रोही
सच कहना बहुत जरूरी है।
बे–खुदी में तुमने नजाने क्या क्या फैसले लिये
बात तेरी सही होगी सियासी बिसात पर
आतिश–परस्त लोगों मैं फिक्र करता हूँ तेरा
हवा ने रूख जो बदला जल न जाये घर तेरा
आग से खेलोगे तो हाथ का जलना है लाजिमी
हमदर्द हूँ सच कहना बहुत जरूरी है।
दिल से पहले नफरत की दीवार गिरा के देख
आशियाना फिर कोई बनाना मोहब्बत का
आई होगी समझ रिश्तो की अहमियत अब
बाजार में अपना म’यार नीचे गिरता देख
नाटक तेरा खुद्दारी का और गाना राग दरबारी
इसलिए सच कहना बहुत जरूरी है।
गम–ए–हिज्र को सब की नज्र से छुपाता हूँ
दिल का क्या ये तो मोम भी है फौलाद भी
तुम हिफाजत जिस नफरती दीवार का करते हो
ढह जायेगा बुनियाद उसकी ’आरजी है
हम शायर हैं चलते नहीं बनेबनाये लीक पर
इसलिए सच कहना बहुत जरूरी है।
कितना कमजोर है इमान आपका पता लगता है
पूरखों के किस्से एक पल में तमाम कर बैठे
आप जो भी हैं लहजे से पता चलता है
मिस्री मुंह में रखने से लहजा मिठा नहीं होता
सुनने में है बात यह लगती कडवी
पर सच कहना बहुत जरूरी है।
तेरे वाकि’आ में रंग नहीं रहा अब
तेरे किरदार में दम नहीं रहा अब
किसी को मलाल नहीं आशनाई बदल गई
मै तो कई टुकडों में बट के रह गया अब
सच सुनना हालाँकि होता नहीं आसान
पर सच कहना हमें जरूरी है।
शव्दार्थः
बे–खुदीः बेसुधी; बिसातः स्तर, सतह; आतिश–परस्तः आग से खेलनेवाला; म’यारः पैमाना, स्तर; गम–ए–हिज्रः बिछो का दुःख; ’आरजीः अस्थिर, कमजोर; वाकि’आः घटना, विवरण, वृतांत; आशनाईः दोस्ती, यारी ।
ध्रुव जोशी