मुझको वह अपना छोटा सा
कस्बा बहुत याद आता है
घनी छाँह में पीपल की
शिव मठिया के सौ–सौ फेरे
नीमों पर आमों पर चढ़ कर
थे कभी नहीं ये पाँव थके
अब तो बैठे–बैठे ही
यह मन कितना थक जाता है
सुन कर कोयल की कुहूकन का
दृग सहज चपल हो जाते था
मिल जाती थी जो झलक जरा
तन मन पुलकित हो जाते थे
अब शोर–शोर बस शोर–शोर
हर पल कानों में आता है
कभी याद आ जाती है
नीमों से झरते फूलों की
सावनी मेघ की छाया में
पेंग बढ़ाते झूलों की
जब–जब बौराती अमराई
मन कुछ से कुछ हो जाता है
सुविधा का विस्तार नगर में
सपनों का व्यापार नगर में
मिलता है बस कठिनाई से
सरल–सहज सा प्यार नगर में
फिर बिटिया दीदी सुनने को
बार–बार मन ललचाता है
डॉ. मधु प्रधान, कानपुर, उत्तरप्रदेश, भारत