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‘अपने गांव के टीले
रात को फूलों की तरह महक उठते हैं
और चांदनी में पगे हुई ईख के सूखे पत्तों के ढेरों पर लेट कर
स्वर्ग को गाली देना, बहुत संगीतमय होता है
मैं शुक्रगुजार हूं, सरसों के नन्हें फूलों का
जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया
तेरे केशों से पराग केसर झाड़ने का
मैं आदमी हूं, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूं
और उन सभी चीज़ों के लिए
जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाए रखा।’
२३ मार्च १९८८ को वह आवाज खामोश हो गई जिसने दो दशक पंजाबी कविता को एक नया क्रान्तिकारी आयाम, एक नई जुझारू विधा दी, उसे विद्रोह के नए स्वरों से दोबारा लैस किया। भगत सिंह के शहीदी दिवस पर ही पाश भी शहीद हुए। अवतार सिंह पाश उन चंद इंकलाबी शायरों में से हैं, जिन्होंने अपनी छोटी सी जिन्दगी में बहुत कम लिखा । क्रान्तिकारी शायरी द्वारा पंजाब में ही नहीं सम्पूर्ण भारत में एक नई अलख जगाई। उन्हें क्रांति का कवि माना गया। उनकी तुलना भगत सिंह और चंद्रशेखर से भी की जाती रही पर वे जिंदगी और इस दुनिया को बेपनाह प्यार करनेवाले कवि थे। पाश के लिखे में गांव की मिटटी की महक है। उनकी कविताओं में गाँव, पगडंडियाँ, धूल, बैल, रोटियां, हुक्का, गुड़, चांदनी रात, बाल्टी में झागवाला फेनिल दूध, खेत खलिहान सब अपने पूरे वजूद में जीते-जागते मिलते हैं। हमारे समक्ष एक जीती जागती तसवीर बनती है जब हम पाश की कविता से गुजरते हैं । गाँव की धूसर जमीन और धूल हमें छूकर गुजरती है ।
अब विदा लेता हूं
मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूं
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं
उस कविता में
महकते हुए धनिए का जिक्र होना था
ईख की सरसराहट का जिक्र होना था
उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का जिक्र होना था
पाश अपने निजी जीवन में बहुत बेबाक थे । इश्क हो या नशा, सब उन्होंने खूब खुलकर किया।
मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा
उस सब कुछ का जिक्र होना था
उस कविता में मेरे हाथों की सख्ती को मुस्कुराना था
मेरी जांघों की मछलियों ने तैरना था
और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से
स्निग्धता की लपटें उठनी थीं
खालिस्तानी लोगों से धमकियां मिलने के कारण पाश अपने परिवार के साथ अमेरिका चले गए थे लेकिन कुछ समय बाद वो वापस भारत लौट आए थे। खालिस्तानियों को उनके आने की खबर मिल चुकी थी। जिस दिन पाश दोबारा वापस अमेरिका जा रहे थे उसी दिन उन लोगों ने उसकी हत्या कर दी थी। पाश अपने साथी हंसराज के साथ अपने गांव के खेतों में लगे ट्यूबवेल के पास नहा रहे थे तभी खालिस्तानियों ने उन पर गोलियों से हमला कर दिया जिसमें पाश और अनके साथी दोनों की मौत हो गई। और इस तरह असमय एक मुखर कलम मौन हो गई ।
पाश की कविता क्रान्तिकारी काव्य-परम्परा की अत्यन्त प्रभावी और सार्थक अभिव्यक्ति है। मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण पर आधारित व्यवस्था के नाश और एक वर्गविहीन समाज की स्थापना के लिए जारी जनसंघर्षों में इसकी पक्षधरता बेहद स्पष्ट है। यह न तो एकायामी है और न एकपक्षीय । इनकी चिन्ताओं में वह सब भी शामिल है, जिसे इधर प्रगतिशील काव्य-मूल्यों के लिए प्रायः विजातीय माना जाता रहा है।
अपनी कविता के माध्यम से पाश हमारे समाज के जिस वस्तुगत यथार्थ को उद्घाटित और विश्लेषित करना चाहते हैं, उसके लिए वे अपनी भाषा, मुहावरे और बिम्बों-प्रतीकों का चुनाव ठेठ ग्रामीण जीवन से करते हैं। लोक-जीवन से ऊर्जा ग्रहण करते हुए भी इनकी कविताएँ प्रतिगामी आस्थाओं और विश्वासों को लक्षित करना नहीं भूलतीं और उनके पुनर्संस्कार की प्रेरणा देती हैं। काव्यवस्तु के सन्दर्भ में पाश नाज़िम हिकमत और पाब्लो नेरुदा जैसे क्रान्तिकारी कवियों को ‘हमारे अपने कैम्प के आदमी’ कहकर याद करते हैं और सम्बोधन-शैली के लिए महाकवि कालिदास को।
पाश के जीवनकाल में जो तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए, उसमें दो ‘उडदे बाजां मगर’ (उड़ते बाजों के पीछे) १९७३, और ‘साड्डे समियां विच’ (हमारे वक़्त में) १९७८, पर उस क्रान्तिकारी विरासत की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है, जिसे ट्रोट्स्की से हासिल करने का दावा पाश ने बार-बार किया है। १९७० में प्रकाशित ‘लौह कथा’ तक अभी पाश राजनीतिक और कलात्मक पक्ष से पूरी तरह परिपक्व नहीं था। उसकी मृत्यु के बाद १९८९ में प्रकाशित ‘खिलरे होए पन्ने’ (बिखरे हुए पन्ने) उसके लेखों और चिट्ठियों का संग्रह है। उसकी कविताओं का एक और संग्रह १९९७ में लाहौर में प्रकाशित हुआ।
लीक से बंधी और दकियानूस औपचारिक शिक्षा में पाश की रूचि विकसित नहीं हो सकी और वे मुश्किल से मेट्रिक पास कर प्राथमिक अध्यापक का डिप्लोमा ले पाए। मगर अक्टूबर क्रांति और उसके नेताओं, विशेष रूप से लेनिन और त्रात्सकी ने पाश के व्यक्तित्व पर ऐसी छाप छोड़ी कि पाश की कविता में सर्वहारा और मेहनतकश जनता की आत्मा बोलने लगी। उनकी कविता कितनी ही देशी-विदेशी भाषाओँ में प्रकाशित होती रही और उन्हें कितने ही पुरस्कारों में, पंजाब साहित्य अकादमी का सर्वोच्च पुरस्कार भी मिला।
उनके शब्दों को देखें तो लगता है उन्होंने बहुत पहले ही अपने मौत के ढंग का चुनाव कर लिया था। मौत की आँखों में आँखें डालते, पाश ने चुनौतीपूर्ण स्वर में कहा:
मरने का एक और भी ढंग होता है
मौत के चेहरे से उठा देना नकाब
और ज़िन्दगी की चार सौ बीसी को
सरेआम बेपर्दा कर देना
पाश इसी तरह जिए और मरे, अपनी शर्तों पर। जिंदगी और मौत दोनों को जैसे वश में कर लिया हो इस कवि ने ।
(डा. श्वेता दीप्ति त्रिभुवन विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की उप-प्राध्यापक हैँ)
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