• २०८१ मंसिर २९ शनिवार

शाश्वत प्रेम

 बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

छू लेना उत्कर्ष सहज ही,
था कितना पावन उत्तम
अनजानी राहों पर पाया
शाश्वत प्रेम मिलन संगम
जादूमय उपलब्धि फिर भी,
प्रीत रही हरदम प्यासी
एक अलौकिक जग था अपना
थे जिसमें केवल हम तुम
इक दूजे से बहुत दूर पर,
श्वाँस गति बहकी जायें
सामाजिकता खडी द्वार पर,
मूढ चिढाने को तत्पर
मारक मन्त्र तुम्हारा ऐसा,
जती–सती ना बच पाये
स्वर्ग पर या पावन गंगा,
तू मुझको नित ललचाये
तेरी अल्हडता, अठखेली,
मेरा तन–मन हरसायें
भूल सका ना, भूल सकूँगा,
गीतों की साँझी सरगम
राहें एक आपकी मेरी,
निर्मल जीवन धन पाये ।

साभार: अनेक पल और मैं


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)