• २०८१ कातिर्क २५ आइतबार

भीतर सन्नाटा

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

नगरों की वीथियों से
गाँव की पगडण्डियों से
कुछ खो गया सा लगता है
कुछ नहीं बल्कि
बहुत कुछ खोया सा है
पर क्या और क्यों
क्या कुछ सपने
जो सजे रहते थे
हर चौराहे पर, नुक्कड पर
जो आज चुप्पी की
चादर तले ढँके पडे
कुलबुला रहे हैं
कोलाहल कराह रहा है
पर क्यों ?
अजीब
किन्तु सत्य, सौ प्रतिशत
यहाँ–वहाँ
जहाँ तक पहुँच रही है
नजर, सोच
विचारों का आदान–प्रदान
सभी हो गये हैं शून्य
पर क्यो ?
अरे ! परछाई भी
कहाँ छिप गयी है
जो हमेशा रहती थी मेरे साथ ।
ना तो कुछ दिखाई दे रहा है
और ना ही कुछ
समझ में आ रहा है
घुटन है, घबराहट है

सारा वातावरण ही हो गया है
बोझिल पर क्यो ?
यत्र–तत्र या कहूँ सर्वत्र ही
बना हुआ है एक घेरा
वैसे ही जैसे सूर्य ग्रहण के समय
बन जाता है वलायाकार घेरा ।
नहीं ! नहीं !
विखरा हुआ है कण–कण में

हर घर आँगन में
नहीं– कदापि नहीं !!
आज तो फैला हुआ है
सन्नाटा !
परिवेश में ही नहीं !
हृदय में भी पसरा हुआ है
भीतर तक सन्नाटा

साभार: अनेक पल और मैं


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)