• २०८१ कातिर्क २३ शुक्रबार

प्रेम–प्रतीक्षा

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

बहकता प्रेम–प्रतीक्षा साज
ताक रहा हूँ अपलक तुझको,
भव्य नवल ऋतुराज ।

भाव–भूमि है मिलन सुरक्षित,
बिछुडन भय का भान नहीं ।
डगमग करती नाव नदी में,
व्याकुल नजरें देख रहीं  ।।
बहका वृक्ष बसन्ती धुन में,
त्याग रीति–रिवाज
बहकता प्रेम प्रतीक्षा साज ।

सूर्य अस्त हो जाने पर भी,
चुम्बन धूप अभी भी बाकी
उमड रहा मेरे सीने से,
अश्रु–धार पलकों में पाकी ।।
चंचल, चोर, तपन मिलने को,
छुपा न पायी राज
बहकता प्रेम प्रतीक्षा साज ।

मुस्कानों की अँगडाई में
मस्त छवि उपहास करे ।
रस के लोभी भ्रमर दिवाने,
फूल कली संग रास करें ।।
बाँह पाश मे बँधकर प्रियजन,
भूले लोक लिहाज ।
बहकता प्रेम प्रतीक्षा साज ।

तुम क्या जानो विरह वेदना,
जलन धूप की हरियाली ।
जब–जब मैं खोया हूँ तुझ में,
बहक गयी मादक डाली ।।
हिंसक बन मतवाला फागुन,
झपटे जैसे बाज ।
बहकता प्रेम प्रतीक्षा साज ।

साभार: अनेक पल और मैं


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं)