• २०८१ असोज २४ बिहीबार

रांगेय राघव ‘हिंदी के शेक्सपीयर’

डा. श्वेता दीप्ति

डा. श्वेता दीप्ति

‘‘शोषण की घुटन सदैव नहीं रहेगी। वह मिट जाएगी। सत्य सूर्य है । यह सदैव मेघों से घिरा नहीं रहेगा । मानवता पर से यह बरसात एक दिन अवश्य दूर होगी । और तब नयी शरद में नए फूल खिलेंगे, नया आनंद व्याप्त हो जाएगा ।’’

उत्तर प्रदेश में आगरा के बागमुजफ्फर खां इलाके में 17 जनवरी, 1923 को एक तमिल भाषी आयंगर परिवार में जन्मे तिरूमल निम्बाक्कम वीर राघव ताताचार्य उर्फ टीएन वीर राघव आचार्य का नाम रांगेय राघव कैसे पड़ा, उन्हीं की ज़बानी, ‘‘मेरा एक नाम तो टी.एन.वी. आचार्य और दूसरा वीर राघव था। मैं कोई वीर था नहीं और टीएनवी हिंदी के लिए उपयुक्त नाम नहीं था। मेरे पिता का नाम रंगाचारी था, अतः मैंने अपना नाम रंगा का बेटा रांगेय राघव कर लिया।’’ पन्द्रह साल की छोटी उम्र से ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। इनका विवाह सुलोचना से हुआ था  ।

उन्होंने बहुत कम उम्र पाई, पर इतना प्रचुर लिखा कि कालजयी हो गए. नौजवानी में अंग्रेजी कहानियों से प्रभावित होकर, उन्होंने ‘अंधेरी की भूख’ नाम का कहानी संग्रह लिख डाला था। इस संग्रह की ज्यादातर कहानियां भूत-प्रेतों की कहानियां थीं। बाद में वे कविताओं की ओर उन्मुख हुए। शुरुआत में उन्होंने कविताएं ही ज्यादा लिखीं। साल 1944 में आया ‘अजेय खंडहर’, रांगेय राघव का पहला खंडकाव्य था। इस खंडकाव्य में उन्होंने स्तालिनग्राद में लड़े गए युद्ध में लाल सेना की बहादुरी और नाजियों की बर्बरता की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति की थी ।

साल 1946 में आया ‘घरौंदे’ रांगेय राघव का पहला उपन्यास है। इसी साल बंगाल अकाल पर उनका एक और उपन्यास ‘विषादमठ’ आया। ‘मुर्दों का टीला’ वह उपन्यास है, जिससे रांगेय राघव को देशव्यापी प्रसिद्धि मिली। ईसा से 3500 वर्ष पूर्व मोअन-जो-दड़ो की सभ्यता को केन्द्र बिंदु बनाकर लिखे गए इस उपन्यास में उनका विस्तृत अध्ययन देखते ही बनता है। हिंदी के ऐतिहासिक उपन्यास में ‘मुर्दों का टीला’ का विशेष स्थान है। देश के प्राचीन इतिहास से रांगेय राघव का गहरा लगाव था। ‘अंधेरे के जुगनू’, ‘प्रतिदान’, और ‘चीवर’ में ऐतिहासिक और पौराणिक किरदारों के इर्द-गिर्द उन्होंने उपन्यास बुने हैं। उनका ऐतिहासिक उपन्यास ‘महायात्रा’ दो खंडों ‘अंधेरा रास्ता’ एवं ‘रैन और चंदा’ शीर्षक से है। ‘अंधेरा रास्ता’ में जहां प्रागैतिहासिक काल वर्णित है, तो वहीं ‘रैन और चंदा’ में उन्होंने जनमेजय से लेकर अजातशत्रु तक यानी बर्बर दासप्रथा से सामंती व्यवस्था के उदय तक की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थितियों का ब्यौरा दिया है। ‘एक छोड़ एक’, ‘जीवन के दाने’, ‘साम्राज्य का वैभव’, ‘समुद्र के फेन’, ‘अधूरी मूरत’, ‘अंगारे न बुझे’, ‘इंसान पैदा हुआ’, ‘मेरी प्रिय कहानियां’ आदि रांगेय राघव के प्रमुख कहानी संग्रह हैं ।

उन्होंने जर्मन और फ्रांसीसी के कई साहित्यकारों की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया. राघव द्वारा शेक्सपीयर की रचनाओं का हिंदी अनुवाद इस कदर मूल रचना सरीखा था कि उन्हें ‘हिंदी के शेक्सपीयर’ की संज्ञा दे दी गई. वह अंग्रेजी, हिंदी, ब्रज और संस्कृत के विद्वान थे. पर दक्षिण भारतीय भाषाओं, तमिल और तेलुगू का भी उन्हें अच्छा-खासा ज्ञान था. हालांकि वह केवल 39 साल की उम्र तक जीये, पर इस बीच उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, रिपोर्ताज सहित आलोचना, संस्कृति और सभ्यता जैसे विषयों पर डेढ़ सौ से अधिक पुस्तकें लिख दी थीं. उनके बारे में कहा जाता था कि जितने समय में कोई एक किताब पढ़ता है, उतने में वह एक किताब लिख देते हैं ।

लेखन की शुरुआत: रांगेय राघव ने जब विधिवत लेखन की शुरुआत की तब देश स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत था। आजादी के संघर्ष में हिंदी का जोर था। ऐसे में उन्होंने भी हिंदी में लेखन किया। उन्होंने सबसे पहले कविता लिखनी शुरू की। पर वे ‘घरौंदा’ उपन्यास के जरिए प्रगतिशील कथाकार के रूप में चर्चित हुए। यह उपन्यास उन्होंने महज अठारह साल की उम्र में लिखा था ।

हिंदी और तमिल के अलावा रांगेय राघव को कई विदेशी भाषाओं का ज्ञान था। उन्होंने जर्मन और फ्रांसीसी साहित्यकारों की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया। उन्होंने शेक्सपियर की रचनाओं का भी हिंदी में इतना अच्छा अनुवाद किया कि वे मूल रचना जैसी प्रतीत होती हैं। यही वजह है कि रांगेय राघव को हिंदी का शेक्सपियर कहा जाता है। शेक्सपियर के दस नाटकों का उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया था ।

रांगेय राघव ने केवल ऐतिहासिक उपन्यास नहीं लिखे, बल्कि ऐसे ऐतिहासिक उपन्यास लिखे जिनके चरित्र महिलाओं से जुड़े थे। रांगेय राघव ने इन ऐतिहासिक या पौराणिक पात्रों को एक स्त्री के नजरिए से देखा। राघव अपने वक्त के लेखकों से पहले ही प्रगतिशील हो गए थे। उन्होंने ‘गदल’ कहानी लिखी, जो आधुनिक स्त्री-विमर्श की कसौटी पर खरी उतरती है। राघव के उपन्यासों के नाम उनसे जुड़ी महिलाओं के नाम पर थे। जैसे ‘भारती का सपूत’ जो भारतेंदु हरिश्चंद्र की जीवनी पर आधारित है। ‘मेरी भव बाधा हरो’ कवि बिहारी के जीवन पर आधारित है, ‘लखिमा की आंखें’ जो विद्यापति के जीवन पर आधारित है। तुलसी के जीवन पर आधारित ‘रत्ना की बात।’ ‘लोई का ताना’ जो कबीर जीवन पर आधारित है। गोरखनाथ के जीवन पर आधारित कृति है ‘धूनी का धुआं।’ ‘यशोधरा जीत गई’ जो गौतम बुद्ध पर लिखा गया है। ‘देवकी का बेटा’ जो कृष्ण के जीवन पर आधारित है। उन्होंने ‘कब तक पुकारूं’ और ‘धरती मेरा घर’ जैसे आंचलिक उपन्यास भी लिखे। रांगेय ने कुल मिलाकर डेढ़ सौ से अधिक पुस्तकें लिखीं ।

सम्मान: साहित्य में उनके योगदान को सरकार ने भी सम्मानित किया। उन्हें 1947 में हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार, 1954 में डालमिया पुरस्कार, 1957 और 1959 में उत्तर प्रदेश शासन पुरस्कार, 1961 में राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार और 1966 में मरणोपरांत महात्मा गांधी पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।


(डा. श्वेता दीप्ति त्रिभुवन विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की उप-प्राध्यापक हैँ)
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