• २०८१ कातिर्क २३ शुक्रबार

मंजिल

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

यात्रा तो जीवनकी ही है
लेकिन मेरी यात्रा सीमित है
बस तुमसे ही शुरू और तुम पर ही खत्म !

मैं मंजिलकी तलाश में
मंजिल ही ढूँढ्ता हूँ
तुम्हें पाने के लिए
तुम्हीं में वशीभूत होता हूँ ।

जहाँ तुम
वहीं मेरा मंदिर
खुद को भुलाकर
मेरा मन
तुममें ही समाहित हो जाना चाहता है ।

हाँ !
मंदिर तो अगम्य शिखर पर ही होता है
मैं उसी अगम्य शिखर पर चढना चाहता हूँ
वही मेरा हिमालय है
लेकिन मैं
ऊपर से नहीं नीचे से हिमालय को छुना चाहता हूँ
क्यों कि तुम्हारे प्रेम का स्पर्श पाने के लिए
हद तक झुक जाना ही
मेरे लिए सर्वोच्च शिखर को चूमना है ।

साभार: चाहतों के साये मेंं


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)