कथा

सरस सावनी वात बहती
कानों में कुछ कह जाती है
अन्तर्मन की पीडा को वह
नव आयाम थमा जाती है
भीगा-भीगा तन वर्षा में
जेठ मास की तपन दिखाये
धरा ओढ हरियाली नाचे
विरहन की विचलन को बाँचे
वर्षा की शीतल फुहारें
मन में दुगुनी अगन लगाये
रह–रह कर पुरवैया बैरन
पुनः मिलन की पीर जगाये
अब फागुन में प्रीत अधूरी
सराबोर होने वाली है
जनमों से जिस खातिर तड्पे
वह पूरी होने वाली है
पीर पुरातन बुझ जायेगी
फिर भी
तन की प्यास सवाली ।
साभार: अनेक पल और मैं
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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।