• २०८१ कातिर्क २१ बुधबार

ब्रह्मनिष्ठा

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

मेरे चाहने से मुरझाने वाला नहीं है
कोई खिला हुआ फूल,
बालपन है वह
मेरे चाहने से बुढापे में नहीं बदल जाएगा
नहीं है कोई ऐसा उपाय जो नए को पुराना
या फिर पुराने को नया कर दे
किसी प्रेम में भी नहीं है ।

जैसे गुम हो जाती है
स्वर्ग के फूल की महक
वैसे ही गुम हो जाती है
तेरी पलकों पर बिखरी हुई
मेरे मेरे होठों की मुस्कान ।

तो, इस तरह की चाहत ही न पनपने दें
आओ प्रिय ! तुम और मैं परस्पर आराधना करें
कि जब तुम याद करो तो मैं
और जब मैं याद करूँ तो तुम
उतना ही जवान रहें
जितना कि हम आज हैं ।

पवित्र प्रेम में यह अनन्त यौवन
होना ही चाहिए
हम रहें या न रहें मगर
हमारी इस पावन आकांक्षाओं के रंग से
हमारी यह धरती रंगीन होनी ही चाहिए ।

साभार: चाहतों के साये मेंं


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)