• २०८२ मंसिर २१, आईतवार

समानान्तर चलती जिदंगी

रश्मि सिंह

रश्मि सिंह

“सौरभ ,बेटा बहुत अच्छी लड़की है ,एक बार देख तो लो“, माँ अंजली का फोन आते ही वह सचेत हो जाता है । फोन नहीं उठाने पर माँ का रोना गाना शुरू हो जाता है,“ अभी से इग्नोर करना शुरू कर दिए हो । “सौरभ मेरा स्टुडेंट था । जब भी घर आता है मुझसे मिलना नहीं भूलता है ।जबकि एक साल से भी कम समय मैंने स्कुल में पढाया था । पर उसके मन में मेरे लिए बहुत जगह थी । एक संवेदनशील और जिज्ञासु स्टुडेंट के नाते अपने सामने ही उसके व्यक्तित्व का विस्तार देखना बहुत सुखद था मेरे लिए ।

इस बार उसने अपना मन उडेल कर रख दिया । मैं इंग्लिश पढाती थी उसे स्कुल में । मुझसे अधिक कौन उसके मन को समझ सकता था । “मैम, मैं पागल हो जाऊंगा, “रुआंसा हो गया था सौरभ । उसकी माँ ने जिस बेतकल्लुफी से सारी बातें बताई थीं मुझे कुछ पूछने की जरूरत ही नहीं थी ।किस तरह इंजिनियर बेटा दुनियादारी से कटता जा रहा है । ना तो उसे मां बाप की फिक्र है ना ही भाई बहनों की । इतना खर्च कर पढाया ताकि कुछ आर्थिक सुधार हो सके पर यह तो नौकरी पर कम, बेकार की चीजों पर समय जाया करता रहता है । कभी म्यूजिक क्लास ज्वाइन करता है कभी किताब लिखता है ।

“उसे इलाज की जरूरत है“, उन्होने बहुत ही आत्मविश्वास से जब कहा तो मैं उनका मूंह टुकुर टुकुर देख रही थी । कहां से इतनी निर्णय क्षमता इन महिलाओं में आती है । मैं अपने आपको शुन्य मान रही थी इनके सामने । मैं कहना चाह रही थी ,उसकी सृजन शीलता पर लगाम मत लगाइए । मुझे पता है मेरी गुजारिश नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित होने वाली है । पर मैं अपने प्रिय शिष्य की समानान्तर चलती जिदंगी को कुंद नहीं होने दूंगी । मैं पहली बार निर्णय ले चुकी थी ।


रश्मि सिंह, अधिवक्ता
पटना बिहार, भारत