• २०८० असोज ७ आइतबार

“स्त्री, अब न भटको”

तूलिका

तूलिका

स्त्री, अब न भटको,
लौट आओ अब माया मृगों के जाल से !!
झाड डालो अब बेकार सपनों के पराग,
होशमें आओ और पहचानो उनको
जो तुम्हें ,तुम्हारी ताकतों को ढक कर
बेवजह देवियों के समकक्ष बैठाए हुए हैं.
ये सपने भरमाने वाले हैं , तुम्हें अपनी
असल क्षमताओं से दूर रखने वाले हैं ..
तुममे देवियों वाली मायावी शक्तियां नहीं
ना ही उन जैसी कोई जादुई छड़ी जिसे घुमाते ही
तुम नैसर्गिक सुखों में विचरण करने लग जाओ.
हाँ, तुममे अपूव मानव शक्ति है , असहनीय वेदना को सह कर
मानव होकर मानव को जन्म देने की ,
जनों के मर्म में उतरने की !!
जैसे प्रसव वेदना से पार उतारकर मिलता है एक अवर्णनीय सुख ,
पा जाओ बेबसी और मजबूरियों के पार जाकर ,
अपने आप को साबित कर
एक विलक्षण चरम सुख !!!
स्त्री , अब न भटको,
घर की चारदीवारी में रहने के अनुपम तारीफों में,
तुममे शक्ति है जीने की, जहाँ जीना, एक विवशता है!
उम्र की सारी ताक़त लगा कुछ हासिल करने की- जहाँ उम्र एक सजा
है !
खुश होवो ज़रूर माँ, पत्नी और बहन होने के अलंकारों से,
पर अपने असीमित भुजाओं को खोलकर समेटो विस्तृत संसार निज कर्म
से ;
वो संसार- जहाँ ज्ञान तुम्हारा गहना हो, आत्मनिर्भरता तुम्हारा
सम्मान,
जहाँ आत्मविश्वास तुम्हारा रक्षक हो और साहस तुम्हारा गुमान!
स्त्री, ज़रूरी नहीं कि तुम सीता बनो
दु:शाषनों के रक्त पान किये बिना चैन न लेने वाली, तुम द्रौपदी बनो,
नहीं है ज़रूरी, तुम हमेशा सुरमई गीत बनो-
तुम अपने इज्ज़त से खेलने वालोँ पर पांच उँगलियों का हस्ताक्षर बनो-
जिसकी गूंज भरी सभा में इतनी हो कि हर
मक्कारों के गाल पर अपनी एक अद्दृश्य छाप छोड़ जाये !
अब मत गीत गाओ अपने घर चलाने की महानता का,
वक़्त आया अब विश्व को अपनी सशक्त उँगलियों पर कराने नृत्य का !
करुणा की गंगा के संग अपनी आकांक्षाओं के समुद्र मंथन का-
जिससे निकलेगी एक अभूतपूर्व स्त्री,
जो सौंदर्य और कोमलता ही से नहीं बल्कि
ताक़त, इज्ज़त, संकल्प और विश्वास से पूर्ण होगी !
हाँ मर्दों से बराबरी करने की मुर्खता न करना,
और गर जो इंद्र अपनी माया से छलित कर्रें तो
अहिल्या सी पाषाण नहीं, बल्कि
दुर्गा और काली सी अग्नि- मुखी, रौद्ररूपी बनना !
परंपरा निभाते हुए आधुनिकता के हर मापदंड पर खरी उतरने को,
स्त्री , तुम लौट आओ माया मृगों के जाल से
अब न भटको !!


तूलिका