• २०८१ मंसिर १७ सोमबार

नीचे के कपड़े

अमृता प्रीतम

अमृता प्रीतम

जिस के मनकी पीड़ाको लेकर मैंने कहानी लिखी थी- ‘नीचे के कपड़े” उसका नाम भूल गई हूँ । कहानी में सही नाम लिखना नहीं था, और उससे एक बार ही मुलाकात हुई थी, इस लिए नाम भी यादसे उतर गया है…जब वह मिलने आई थी, बीमार थी । खूबसूरत थी, पर रंग और मन उतरा हुआ था । वह एक ही विश्वासको लेकर आई थी कि मैं उसके हालात पर एक कहानी लिख दूँ… मैंने पूछा- इस से क्या होगा ?

कहने लगी- जहाँ वह चिट्ठियाँ पड़ीं हैं जो मैं अपने हाथों से नहीं फाड़ सकती, उन्हीं चिट्ठियों में वह कहानी रख दूँगी…मुझे लगता है, मैं बहुत दिन जिंदा नहीं रहूँगी, और बाद में जब उन चिट्ठियों से कोई कुछ जान पाएगा, तो मुझे वह नहीं समझेगा जो मैं हूँ । आप कहानी लिखेंगी तो वहीं रख दूँगी । हो सकता है, उसकी मददसे कोई मुझे समझले मेरी पीड़ाको संभाल ले । मुझे और किसीका कुछ फिक्र नहीं है, पर मेरा एक बेटा है, अभी वह छोटा है, वह बड़ा होगा तो मैं सोचती हूँ कि बस वह मुझे गलत नसमझे…

उसकी जिंदगी के हालात सचमुच बहुत उलझे हुए थे और मेरी पकड़ में नहीं आरहा था कि मैं उन्हें कैसे समेट पाऊँगी । लिखनेका वादा तो नहीं किया पर कहा कि कोशिश करूँगी.. मैं बहुत दिन वह कहानी नहीं लिख पाई । सिर्फ एक अहसास सा बना रहा कि उसका बच्चा मेरे जेहन में बड़ा हो रहा है, इतना बड़ा कि अब बहुत सी चीजें उसके हाथ लगती हैं, तो वह हैरान उन्हें देखे जा रहा है..

कहानी प्रकाशित हुई और बहुत दिन गुजर गए । मैं जान नहीं पाई कि उसके हाथों तक पहुँची या नहीं । सब वक्तके सहारे छोड़ दिया । उसका कोई अता-पता मेरे पास नहीं था… एक अरसा गुजर गया था, जब एक दिन फोन आया, दिल्लीसे नहीं था, कहीं बाहर से था । आवाज थी-‘आपका बहुत शुक्रिया ! मैंने कहानी वहीं रखदी है जहाँ चाहती थी… इतने भर लफ्जों से कुछ पकड़ में नहीं आया था, इसलिए पूछा-‘आप कौन बोल रही हैं ? कौन सी कहानी ?

जवाब में बस इतनी आवाज थी-‘बहुत दूरसे बोल रही हूँ, वही जिसकी कहानी आपने लिखी है-‘नीचे के कपड़े… और फोन कट गया… “नीचे के कपड़े ???” अचानक मेरे सामने कई लोग आकर खड़े हो गए हैं, जिन्होंने कमर से नीचे कोई कपड़ा नहीं पहना हुआ है । पता नहीं मैंने कहाँ पढा था कि खाना बदोश औरतें अपनी कमर से अपनी घघरी कभी नहीं उतारती हैं । मैली घघरी बदलनी हो तो सिरकी ओर से नई घघरी पहन कर, अंदर से मैली घघरी उतार देती हैं और जब किसी खाना बदोश औरत की मृत्यु हो जाती है तो उसके शरीर को स्नान कराते समय भी उसकी नीचे की घघरी सलामत रखी जाती है । कहते हैं, उन्होंने अपनी कमर पर पड़ीने फेकी लकीर में अपनी मुहब्बत का राज खुदाकी मखलूक से छिपा कर रखा होता है । वहाँ वे अपनी पसंद के मर्दका नाम गुदवा कर रखती हैं, जिसे खुदाकी आँखके सिवा कोई नहीं देख सकता ।

और शायद यही रिवाज मर्दों के तह मदों के बारे में भी होता होगा । लेकिन ऐसे नाम गोदने वाला जरूर एक बार औरतों और मर्दों की कमर की लकीर देखता होगा । उसे शायद एक पल के लिए खुदा की आँख नसीब हो जाती है, क्यों कि वह खुदा की मखलूक की गिनती में नहीं जाता… लेकिन मेरी आँखको खुदाकी आँख वाला शाप क्यों मिल गया ? मैं अपने सामने ऐसी औरतें और मर्द क्यों देख रहा हूँ, जिन्होंने कमर से नीचे कोई कपड़ा नहीं पहन रखा है, जिन्हें देखना सारी मखलूक के लिए गुनाह है ?

कल से माँ अस्पताल में है । उसके प्राण उसकी साँसों के साथ डूब और उतरा रहे हैं । ऐसा पहले भी कई बार हुआ है और दो बार पहले भी उसे अस्पताल ले जाया गया था, पर इस बार शायद उसके मनको जीनेका विश्वास नहीं बँध रहा है । अचानक उसने उंगली में से हीरे वाली अंगूठी उतारी और मुझे देकर कहा कि मैं घर जाकर उसकी लोहे वाली अलमारी के खाने में रखदूँ । अस्पताल में अभी दादी भी आई थी, पापा भी, मेरा बड़ा भाई भी, लेकिन माँ ने नजाने क्यों, यह काम उन्हें नहीं सौंपा । हम सब लौटने लगे थे, जब माँ ने इशारे से मुझे ठहरने के लिए कहा । सब चले गए तो उसने तकिए के नीचे से एक मुसा हुआ रुमाल निकाला, जिसके कोने से दो चाबियाँ बँधी हुई थीं । रुमालकी कसी हुई गाँठ खोलने की उसमें शक्ति नहीं थी, इस लिए मैंने वह गाँठ खोली । तब एक चाभी की ओर इशारा करके उसने मुझे यह काम सौंपा कि मैं उसकी हीरेकी अंगूठी अलमारीके अंदर खाने में रख दूँ । यह भी बताया कि अंदर वालेकी चाभी मुझे उसी अलमारी के एक डिब्बे में पड़ी हुई मिल जाएगी ।

और फिर माँ ने धीरे से यह भी कहा कि मैं बम्बई वाले चाचाजी को एक खत डाल दूँ, दिल्ली आने के लिए । और दूसरी चाभी उसने उसी तरह रुमाल में लपेटकर अपने तकिए के नीचे रखली । और जिस तरह तकदीरें बदल जाती हैं उसी तरह चाभियाँ भी बदल गई… घरमें रोज के इस्तेमाल की माँ की एक ही अलमारी है, लेकिन फालतू सामान वाली कोठरी में लोहेकी एक और भी अलमारी है, जिसमें फटे-पुराने कपड़े पड़े रहते हैं । पापा के ट्रांसफर के समय वह अलमारी लगभग टूट ही गई थी, पर माँ ने उसे फेंका नहीं था और साकड़-भाकड़वाली उस अलमारी को फालतू कपड़ों के लिए रख लिया था ।

घर पहुँच कर जब मैं माँ की अलमारी खोलने लगा, तो वह खुलती ही न थी । चाभी मेरी तकदीर की तरह बदली हुई थी । हाथ में थामी हुई हीरे की अंगूठी को कहीं संभाल कर रखना था, इस लिए मैंने सामान वाली कोठरीकी अलमारी खोल ली । यह चाभी उस अलमारी की थी । इस अलमारी में भी अंदरका खाना था । मैंने सोचा, उसकी चाभी भी जरूर इसी अलमारी के किसी डिब्बे में ही मिलनी थी…

और मैं फटे-पुराने कपड़ों की तहें खोलने लगा… पुराने, उधड़े हुए सलमे के कुछ कपड़े थे, जो माँ ने शायद उनका सुच्चा सलमा बेचने के लिए रखे हुए थे और पापा के गर्मकोट भी थे, जो शायद बर्तनों से बदलने के लिए माँ ने संभाल कर रखे हुए थे । मैंने एक बार गलीमें बर्तन बेचने वाली औरतों से माँ को एक पुराने कोट के बदले में बर्तन खरीदते हुए देखा था ।

पर मैं हैरान हुआ-माँ ने वे सब टूटे हुए खिलौने भी रखे थे, जिन से मैं छुट पनमें खेला करता था । देख कर एक दहशत सी आई-चाभी से चलने वाली रेलगाड़ी इस तरह उलटी हुई थी, जैसे पटरी से गिर गई हो और उस भयानक दुर्घटना से उसके सभी मुसाफिर घायल हो गए हों- प्लास्टिक की गुड़िया, जो एक आँखसे कानी हो गई थी, रबड़का हाथी, जिसकी सूंड बीचमें से टूट गई थी, मिट्टीका घोड़ा, जिसकी अगली दोनों टाँगें जैसे कट गई हों और कुछ खिलौनों की सिर्फ टाँगें और बाहें बिखरी पड़ी थीं-जैसे उनके धड़ और सिर उड़कर कहीं दूर जा पड़े हों- और अब उन्हें पहचाना भी नहीं जा सकता था..

मेरे शरीर में एक कंपन सी दौड़ गई-देखा कि इन घायल खिलौनों के पास ही मिट्टीकी बनी शिवजी की मूर्ति थी, जो दोनों बाहों से लुंजी हो गई थी और ख्याल आया -जैसे देवता भी अपाहिज होकर बैठा हुआ है । जहाँ तक याद आया, लगा कि मेरा बचपन बहुत खुशी में बीता था । बड़े भाई के जन्म के सात बरस बाद मेरा जन्म हुआ था, इस लिए मेरे बहुत लाड़ हुए थे । तबतक वैसे भी पापा की तरक्की हो चुकी थी, इस लिए मेरे वास्ते बहुत सारे कपड़े और बहुत सारे खिलौने खरीदे जाते थे… लेकिन पूरी यादोंके लिए इन टूटे हुए खिलौनों की माँ को क्या जरूरत थी, समझ में नहीं आया…

सिर्फ खिलौने ही नहीं, मेरे फटे हुए कपड़े भी तहों में लगे हुए थे-टूटे हुए बटनों वाले छोटे-छोटे कुरते, टूटी हुई तनियों वाले झबले और फटी हुई जुराबें भी… और फिर मुझे एक रुमाल में बँधी हुई वह चाभी मिल गई, जिसे मैं ढूँढ रहा था । अलमारीका अंदर वाला खाना खोला, ताकि हीरे की अंगूठी उसमें रख दूँ । यही वह घड़ी थी जब मैंने देखा कि उस खाने में सिर्फ नीचे पहनने वाले कपड़े पड़े हुए थे.. और अचानक मेरे सामने वे लोग आकर खड़े हो गए हैं जिनके सिर भी ढँके हुए हैं, बाहें भी, ऊपरके शरीर भी- लेकिन कमर से नीचे कोई कपड़ा नहीं है…

प्रलयका समय शायद ऐसा ही होता होगा, मालूम नहीं । मेरे सामने मेरी माँ खड़ी हुई है, पापा भी, बम्बई वाले चाचा भी और कोई एक मिसेज चोपड़ा भी और एक कोई मिस नंदा भी- जिन्हें मैं जानता नहीं । और खोए हुए से होश से मैंने देखा कि उनके बीचमें कहीं भी मैं भी गुच्छासा बनकर बैठा हुआ हूँ… नजाने यह कौन सा युग है, शायद कोई बहुत ही पुरानी सदी, जब लोग पेड़ोंके पत्तोंमें अपनेको लपेटा करते थे.. और फिर पेड़ोंके पत्ते कागज जैसे कब हो गए, नहीं जानता…

अलमारी के खाने में सिर्फ कागज पड़े हुए हैं, बहुतसे कागज जिन पर हर एक के तनकी व्यथा लिखी हुई है- तनके ताप जैसी, तनके पसीने जैसी, तनकी गंध जैसी… ये सब खत हैं, बम्बई वाले चाचाजीके और सब मेरी माँ के नाम हैं… तरह- तरहकी गंध मेरे सिरको चढ रही है.. किसी खतसे खुशी और उदासी की मिली-जुली गंध उठरही है । लिखा है, ‘वीनू ! जो आदम और हव्वा खुदाके बहिश्त से निकाले गए थे- वह आदम मैं था और हव्वा तुम थीं…

किसी खतसे विश्वास की गंध उठ रही है-‘वीनू ! मैं समझता हूँ कि पत्नी के तौर पर तुम अपने पतिको इंकार नहीं कर सकती, लेकिन तुम्हारा जिस्म मेरी नजर में गंगाकी तरह पवित्र है और मैं शिवजीकी गंगाको जटामें धारण कर सकता हूँ… किसी खतसे निराशाकी गंध उठरही है-‘मैं कैसा राम हूँ, जो अपनी सीताको रावणसे नहीं छुडा सकता…नजाने क्यों, ईश्वरने इस जनम में राम और रावणको सगे भाई बना दिया ! किसी खतसे दिल जोईकी गंध उठरही है- ‘वीनू ! तुम मनमें गुनाहका अहसास नकिया करो । गुनाह तो उसने किया था, जिसने मिसेज चोपड़ा जैसी औरतके लिए तुम्हारे जैसी पत्नीको बिसार दिया था..

और अचानक एक हैरानीकी गंध मेरे सिरको चढी, जब एकखत पढा- ‘तुम मुझसे खुश नसीब हो वीनू ! तुम अपने बेटेको बेटा कह सकती हो, लेकिन मैं अपने बेटेको कभी भी अपना बेटा नहीं कह सकूँगा । और अधिक हैरानीकी गंधसे मेरे सिरमें एक दरार पड़ गई, जब एक दूसरे खतमें मैंने अपना नाम पढा । लिखा था-‘ मेरी जान वीनू ! अब तुम उदास नहुआ करो । मैं नन्हेंसे अक्षयकी सूरतमें हर वक्त तुम्हारे पास रहता हूँ । दिनमें मैं तुम्हारी गोदमें खेलता हूँ और रातको तुम्हारे पास सोता हूँ…

सो मैं..मैं… जिंदगी के उन्नीस बरस मैं जिसे पापा कहता रहा था, अचानक उस आदमी के वास्ते यह लफ्ज मेरे होठों पर झूठा पड़ गया है… बाकी खत मैंने पूरे होश में नहीं पढे, लेकिन इतना जाना है कि जन्मसे लेकर मैंने जो भी कपड़ा शरीर पर पहना है, वह माँ ने कभी भी अपने पतिकी कमाई से नहीं खरीदा था । मिट्टीका खिलौना तक भी नहीं । मेरे स्कूलकी और कॉलेजकी फीसें भी वह घरके खर्चमें से नहीं देती थी..

यह भी जाना है कि बम्बईमें अकेले रहने वाले आदमी से कुछ ऐसी बातें भी हुई थीं, जिनके लिए कई खतों में माफियाँ माँगी गई हैं, और उस सिलसिलेमें कईबार किसी मिस नंदा का नाम लिखा गया है, जो खत लिखने वाले की नजरों में एक आवारा लड़की थी, जिसने मेनका की तरह एक ॠषिकी तपस्या भंग करदी थी… और कई खतोंमें माँ की झिड़कियाँ सी दी गई हैं किये सिर्फ उसके मनके वहम हैं, जिनके कारण वह बीमार रहने लगी है…

यह माँ, पापा, चाचा,मिसेज चोपड़ा, मिस नंदा-कोई भी खानाबदोशों के काफिलों में से नहीं है- पर खानाबदोशों की परंपरा शायद सारी मनुष्य जाति पर लागू होती है, सबकी घघरियों और सबके तहमदों पर, जहाँ उनके शरीर पर पड़ी उनके नेफेकी लकीर पर लिखा हुआ नाम ईश्वरकी आँखके सिवा किसी को नहीं देखना चाहिए ।… और पतान हीं लगता कि आज मेरी आँख को ईश्वरकी आँखवाला शाप क्यों लगगया है.. सिर्फ यह जानता हूँ कि ईश्वरकी आँख ईश्वरके चेहरे पर हो तो वरदान है, लेकिन इन्सान के चेहरे पर लगजाए तो शाप हो जाती है…।