ज्ञात–अज्ञात
अनगिनत कहानियाँ हैं
उन अमूर्त कहानियों की कई श्रृखंलाओं को
जिज्ञासावश मन ही मन ढोते हुए
सदियों से
मैं निरन्तर यात्रा में हूँ ।
कई बार टुटा यह शहर
बर्बाद हुआ ।
फिर कई बार बना भी
आबाद भी हुआ
कई छप्परों को उजाडकर
यहाँ की सडकें चौडी हुई
और उन्ही चौडी सडकों पे कुचलकर
कई बार घायल हुआ शहर
बीमार हुआ ।
असीम वेदनाओं से
तडपते हुए देखा है शहर को
पीडा में छटपटाते हुए देखा है ।
कई बार जोर–जोर से चीखते–चिल्लाते हुए
रोते हुए भी देखा है ।
फूलों की तरह मुस्कुराते हुए भी शहर को देखा है ।
शहर को स्निग्ध सुवासित उन्मुक्त हँसी
हँसते हुए देखा है ।
मैं इस शहर के करीब हूँ
इतना करीब कि लगता है मैं इसका कोई अपना हूँ
और यह मेरा अभिन्न अंग है ।
मंैने इसे स्नेहिल स्पर्श किया है
खुद ही को अंकमाल करने के लिए ।
मगर कभी–कभी
भूल जाता है
मुझे, यह शहर
नये–नये चेहेरे में
नये–नये श्रृंगार में
रूप बदल–बदलकर ।
मगर मैं इसे पहचानता हूँ
क्योंकि, मैं शहर के भीतर का हूँ ।
इसलिए इसके हरेक गिरगिटिया रंग से
सशंकित होता हूँ ।
इसके आँसू और हंसी के संग
झुमते हुए खुद को भूल जाने के बाद की प्राप्ति ही
मेरा ‘मैं’ है ।
इस शहर की विस्तृति
इसके विस्तार में ही है
इसी ‘मैं’ में
समाहित हो जाने के लिए
समाधिष्ट हो जाने के लिए
युगों से निरन्तर मैं यात्रा में हूँ ।
साभार: चाहतोके सायेमें (हिन्दी कवितासङ्ग्रह)
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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हुन् ।)