• २०८१ माघ २ बुधबार

मेरी यह अनंत यात्रा

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

ज्ञात–अज्ञात
अनगिनत कहानियाँ हैं
उन अमूर्त कहानियों की कई श्रृखंलाओं को
जिज्ञासावश मन ही मन ढोते हुए
सदियों से
मैं निरन्तर यात्रा में हूँ ।

कई बार टुटा यह शहर
बर्बाद हुआ ।
फिर कई बार बना भी
आबाद भी हुआ
कई छप्परों को उजाडकर
यहाँ की सडकें चौडी हुई
और उन्ही चौडी सडकों पे कुचलकर
कई बार घायल हुआ शहर
बीमार हुआ ।

असीम वेदनाओं से
तडपते हुए देखा है शहर को
पीडा में छटपटाते हुए देखा है ।
कई बार जोर–जोर से चीखते–चिल्लाते हुए
रोते हुए भी देखा है ।
फूलों की तरह मुस्कुराते हुए भी शहर को देखा है ।
शहर को स्निग्ध सुवासित उन्मुक्त हँसी
हँसते हुए देखा है ।

मैं इस शहर के करीब हूँ
इतना करीब कि लगता है मैं इसका कोई अपना हूँ
और यह मेरा अभिन्न अंग है ।
मंैने इसे स्नेहिल स्पर्श किया है
खुद ही को अंकमाल करने के लिए ।

मगर कभी–कभी
भूल जाता है
मुझे, यह शहर
नये–नये चेहेरे में
नये–नये श्रृंगार में
रूप बदल–बदलकर ।
मगर मैं इसे पहचानता हूँ
क्योंकि, मैं शहर के भीतर का हूँ ।
इसलिए इसके हरेक गिरगिटिया रंग से
सशंकित होता हूँ ।

इसके आँसू और हंसी के संग
झुमते हुए खुद को भूल जाने के बाद की प्राप्ति ही
मेरा ‘मैं’ है ।

इस शहर की विस्तृति
इसके विस्तार में ही है
इसी ‘मैं’ में
समाहित हो जाने के लिए
समाधिष्ट हो जाने के लिए
युगों से निरन्तर मैं यात्रा में हूँ ।

साभार: चाहतोके सायेमें (हिन्दी कवितासङ्ग्रह)


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हुन् ।)