• २०८१ चैत १ शनिवार

प्रेम

अनिलकुमार मिश्र

अनिलकुमार मिश्र

उन्मुक्त होते प्रेम पर
अंकुश न डालो
प्रेमही जीवंत जीवन का है द्योतक
प्रेमही तो प्राण है
प्रेम है तो प्राण है।
तन–मन को जीवन दे रहाजो
बहते हुए इस रक्त में
प्राणरूपी प्रेम है
वही प्रेम है जो प्राण है ।

प्रेमकी दूरी बड़ी लंबी
होती है तय पग- पग
खुद को प्रतिपलहार करके
दर्द का श्रृंगार करके ।
प्रेम है जीवन अनोखा
और जीवन प्रेम है
यह ईश का अनुराग है
हृदयतह में छिपे
जो प्रेम अविचल
उनको निहारो
जी भर पढ़ो
अनुराग में छिपते हुए सब राग को
अनुभव करो ।

डूब जाओ प्रेम में
यहधर्म है
आत्मीयता हो प्रेम में
फिर हो सुखद यह
प्रेम को प्रतिपल यहाँ सिंचित करें सब
यही मर्म है सब कर्म का ।

राहहो सत्कर्म की
बढ़ते रहें सब
प्रेमकीमाला सुखद
जपते रहें सब
प्रेमपथ पर
मुक्त मन से
गीत- नव गढ़ते रहें
प्रेम में उन्मुक्त होकर
अनिल सा बहते रहें ।

प्रेम के उस बाग से बहकर
इधर जो आ रही
अनुभव करें
उस मलय को, उस पवन को
मुस्कुराकर प्रेम के ही गीत गाएँ
प्रेम को मन में बसाकर
प्रेम के सब स्वाद लेकर
प्रेम पीकर, प्रेम चखकर
प्रेम के संसार में
’प्रेम तेरी जय हो गाकर’
प्रेम को बस प्रेम से ही
आज हम सब गुनगुनाएं ।


अनिलकुमार मिश्र, राँची, भारत
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