• २०८१ असोज २९ मङ्गलबार

किताब

नाज़ सिंह

नाज़ सिंह

मैं घर में रहूँ या सफ़र में
कालेज में या अपने दफ्तर में
मै जहां भी जाऊं,
जहां से भी आऊं
हर वक्त मेरे साथ रहती है वह
हर वक्त मुझे कुछ कहती है वह
मेरे मस्तिष्क के नदी में बहती है वह
मेरी निष्क्रियता को भी सहती है
हर प्रश्न का उत्तरकर्ता है वह
मै जहां भी जाऊं,
जहां से भी आऊं
जिन्दगी के हर मोड़ पर
खड़ी रहती है वह
चाहे आंसू मेंहो या मुस्कान में
जिन्दगी के हर कश्मकश में
मेरे साथ–साथ रहती है वह
मैं उसे
पढूं
लिखू
या सुनुँ
मैं उसके साथ कुछ भी क्यों ना करूँ ,
वह मुझे बहुत ही सच्ची लगती है
बहुत ही अपनी लगती है
कभी तकिया के नीचे
तो कभी टेबल के ऊपर
कभी किचेन में
खुली खुली सी रहती है
सोफ़ा पर बैठी झांकती
सुबह होने तक मेरा इंतज़ार करती है
फिर भी
बेहतरीन के खोज में निकली थी मैं
बेवजह ही दुनियाँ जहाँ
पर जो सुकून है उसके साथ
वह कहीं और कहाँ ?
वह मेरी ज्ञान गंगा है
जितना डूबती हूँ उसमें
वह मुझे कुछ न कुछ सिखाती है
हर लहर में मुझे उठाते उछालते हुए
तभी तो कहते है
ज्ञान के गंगा में
अध्ययन से ज्यादा कोई श्रोत नहीं
किताब से अच्छी कोई दोस्त नहीं
मेरी प्यारी दोस्त
मेरी किताब ।


नाज़ सिंह, बेलायत