• २०८१ पौष २९ सोमबार

मकान

कैफी आजमी

कैफी आजमी

आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात नफुटपाथ पे नींद आयेगी ।
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी ।
ये जमीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी
पाँव जब टूटी शाखों से उतारे हम ने ।
इन मकानों को खबर है नाम कीनों को खबर
उन दिनों की जो गुफाओ मे गुजारे हमने ।

हाथ ढलते गये सांचेमें तो थकते कैसे
नक्शके बाद नये नक्श निखारे हमने ।
किये दीवार बुलंद, और बुलंद, और बुलंद,
बाम-ओ-दर और जरा, और सँवारा हमने ।
आँधियाँ तोड़ लिया करती थी शामों कीलौं
जड़ दिये इस लिये बिजलीके सितारे हमने ।

बन गया कसर तो पहरे पे कोई बैठ गया
सोरहे खाक पे हम शोरिश-ऐ-तामिर लिये ।
अपनी नस-नसमें लिये मेहनत-ऐ-पेयाम की थकान
बंद आंखोंमें इसी कसरकी तसवीर लिये ।
दिन पिघलाता है इसी तरह सारों पर अबतक
रात आंखोंमें खटकतीं है स्याह तीर लिये ।
आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी ।
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी ।