• २०८१ फागुन ३ शनिवार

जंगलीबूटी

अमृता प्रीतम

अमृता प्रीतम

अंगूरी, मेरे पड़ोसियोंके पड़ोसियोंके पड़ोसियोंके घर, उनके बड़े ही पुराने नौकरकी बिल्कुल नई बीवी है ।एक तो नई इस बात से कि वह अपने पतिकी दूसरी बीवी है, सो उसका पति ‘दुहाजू’ हुआ । जूकाम तलब अगर ‘जून’ हो तो इसका मतलब निकला ‘दूसरी जून में पड़ा चुका आदमी’, यानी दूसरे विवाहकी जून में, और अंगूरी क्यों कि अभी विवाहकी पहली जून में ही है, यानी पहली विवाहकी जून में, इसलिए नई हुई ।और दूसरे वह इस बातसे भी नई है कि उसका गौना आए अभी जितने महीने हुए हैं, वे सारे महीने मिलकर भी एक साल नहीं बनेंगे ।

पाँच-छह साल हुए, प्रभाती जब अपने मालिकोंसे छुट्टी लेकर अपनी पहली पत्नीकी ‘किरिया’ करने के लिए गाँव गया था, तो कहते हैं कि किरियावाले दिन इस अंगूरीके बापने उसका अंगोछा निचोड़ दिया था ।किसी भी मर्दका यह अँगोछा भले ही पत्नीकी मौत पर आंसुओं से नहीं भीगा होता, चौथे दिन या किरियाके दिन नहाकर बदन पोंछने के बाद वह अँगोछा पानीसे ही भीगा होता है, इस पर साधारण-सी गाँवकी रस्म से किसी और लड़कीका बाप उठकर जब यह अँगोछा निचोड़ देता है तो जैसे कह रहा होता है-‘ ‘उस मरने वालीकी जगह मैं तुम्हें अपनी बेटी देता हूँ और अब तुम्हें रोनेकी ज़रूरत नहीं, मैंने तुम्हारा आँसुओं भीगा हुआ अँगोछा भी सुखा दिया है।’’

इस तरह प्रभातीका इस अंगूरीके साथ दूसरा विवाह हो गया था ।पर एक तो अंगूरी अभी आयुकी बहुत छोटी थी, और दूसरे अंगूरी की माँ गठियाके रोगसे जुड़ी हुई थी इसलिए भी गौनेकी बात पाँच सालों पर जा पड़ी थी… फिर एक-एक कर पाँच सालभी निकल गए थे और इस साल जब प्रभाती अपने मालिकों से छु्ट्टी लेकर अपने गाँव गौना लेने गया था तो अपने मालिकों को पहले ही कह गया था कि या तो वह बहूको भी साथ लाएगा और शहरमें अपने साथ रखेगा, या फिर वह भी गांवसे नहीं लौटेगा ।मालिक पहले तो दलील करने लगे थे कि एक प्रभातीकी जगह अपनी रसोईमें से वे दो जनोंकी रोटी नहीं देना चाहते थे । पर जब प्रभातीने यह बात कही कि वह कोठरीके पीछे वाली कच्ची जगहको पोतकर अपना चूल्हा बनाएगी, अपना पकाएगी, अपना खाएगी तो उसके मालिक यह बात मान गये थे ।सो अंगूरी शहर आग यी थी ।चाहे अंगूरीने शहर आकर कुछदिन मुहल्ले के मर्दोंसे तो क्या औरतों से भी घूँघट नउठाया था, पर फिर धीरे-धीरे उसका घूँघट झीना हो गया था । वह पैरोंमें चाँदीके झाँझरें पहनकर छनक-छनक करती मुहल्ले की रौनक बन गयी थी । एक झाँझर उसके पाँवोंमें पहनी होती, एक उसकी हँसी में ।

चाहे वह दिनके अधिकरतर हिस्सा अपनी कोठरी में ही रहती थी पर जब भी बाहर निकलती, एक रौनक़ उसके पाँवोंके साथ-साथ चलती थी ।

‘‘यह क्या पहना है, अंगूरी ?’’
‘‘यह तो मेरे पैरोंकी छैल चूड़ी है ।’’
‘‘और यह उँगलियों में ?’’
‘‘यह तो बिछुआ है ।’’
‘‘और यह बाहों में ?’’
‘‘यह तो पछेला है ।’’
‘‘और माथे पर ?’’
‘‘आलीबन्द कहते हैं इसे ।’’
‘‘आज तुमने कमरमें कुछ नहीं पहना ?’’

‘‘तगड़ी बहुत भारी लगती है, कलको पहनूंगी । आज तो मैंने तौ कभी नहीं पहना । उसका टाँका टूट गया है कल शहरमें जाऊँगी, टाँका भी गढ़ाऊँगी और नाककी लभी लाऊँगी । मेरी नाकको नकसाभी था, इत्ता बड़ा, मेरी सासने दिया नहीं ।’’

इस तरह अंगूरी अपने चाँदीके गहने एक नख़रे से पहनती थी, एक नखरे से दिखाती थी ।

पीछे जब मौसम फिरा था, अंगूरीका अपनी छोटी कोठरीमें दम घुटने लगाथा । वह बहुत बार मेरे घरके सामने आ बैठती थी । मेरे घरके आगे नीमके बड़े-बड़े पेड़ हैं, और इन पेड़ोंके पास ज़रा ऊँची जगह पर एक पुराना कुआँ है ।चाहे मुहल्लेका कोई भी आदमी इस कुएँ से पानी नहीं भरता, पर इसके पार एक सरकारी सड़क बन रही है और उस सड़कके मज़दूर कई बार इस कुएँको चलालेते हैं जिससे कुएँके गिर्द अकसर पानी गिरा होता है और यह जगह बड़ी ठण्डी रहती है ।

‘‘क्या पढ़ती हो बीबीजी ?’’ एक दिन अंगूरी जब आयी, मैं नीमके पेड़ोंके नीचे बैठकर एक किताब पढ़ रही थी ।

‘‘तुम पढ़ोगी ?’’
‘‘मेरेको पढ़ना नहीं आता ।’’
‘‘सीख लो।’’
‘‘ना ।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘औरतोंको पाप लगता है पढ़ने से ।’’
‘‘औरतोंको पाप लगता है, मर्द को नहीं लगता ?’’
‘‘ना, मर्दको नहीं लगता ?’’
‘‘यह तुम्हें किसने कहा है ?”
‘‘मैं जानती हूँ ।’’
“फिर तो मैं पढ़ती हूँ मुझे पाप लगेगा ?’’

‘‘सहरकी औरतको पाप नहीं लगता, गांवकी औरतको पाप लगता है ।’’

मैं भी हँसपड़ी और अंगूरी भी । अंगूरीने जो कुछ सीखा-सुना हुआ था, उसमें कोई शंका नहीं थी, इसलिए मैंने उससे कुछ न कहा । वह अगर हँसती-खेलती अपनी जिन्दगीके दायरेमें सुखी रह सकती थी, तो उसके लिए यही ठीक था । वैसे मैं अंगूरीके मुँहकी ओर ध्यान लगाकर देखती रही ।गहरे साँवले रंगमें उसके बदनका मांस गुथा हुआ था । कहते हैं-औरत आटेकी लोई होती है ।पर कइयों के बदनका मांस उसढीले आटेकी तरह होता है जिसकी रोटी कभी भी गोल नहीं बनती, और कइयों के बदनका मांस बिलकुल ख़मीरेआटे जैसा, जिसे बेलनेसे फैलाया नहीं जा सकता ।सिर्फ़ किसी-किसीके बदनका मांस इतना सख़्त गुँथा होता है कि रोटी तो क्या चाहे पूरियाँ बेल लो ।… मैं अंगूरीके मुँहकी ओर देखती रही, अंगूरीकी छातीकी ओर, अंगूरीकी पिण्डलियोंकी ओर… वह इतने सख़्त मैदेकी तरह गुथी हुई थी कि जिससे मठरियाँ तली जा सकती थीं और मैंने इस अंगूरीका प्रभाती भी देखा हुआ था, ठिगने क़दका, ढलके हुए मुँहका, कसोरे जैसा और फिर अंगूरीके रूपकी ओर देखकर उसके ख़ाविन्दके बारेमें एक अजीब तुलना सूझी कि प्रभाती असलमें आटेकी इस घनीगुथी लोई कोपका करखानेका हक़दार नहीं- वह इस लोईकोढक कर रखने वाला कठवत है ।इस तुलनासे मुझे खुद ही हंसी आ गई ।पर मैंने अंगूरीको इस तुलनाका आभास नहीं होने देना चाहती थी । इसलिए उससे मैं उसके गाँवकी छोटी-छोटी बातें करने लगी ।

माँ-बापकी, बहन-भाइयोंकी, और खेतों-खलिहानोंकी बातें करते हुए मैंने उससे पूछा, ‘‘अंगूरी, तुम्हारे गांवमें शादी कैसे होती है ?’’ ‘‘लड़की छोटी-सी होती है । पाँच-सात सालकी, जब वह किसी के पाँव पूज लेती है ।’’
‘‘कैसे पूजती है पाँव ?’’
‘‘लड़कीका बाप जाता है, फूलोंकी एक थाली ले जाता है, साथ में रुपये, और लड़के के आगे रख देता है । ’’
‘‘यह तो एक तरहसे बापने पाँव पूज लिये । लड़कीने कैसे पूजे ?’’
‘‘लड़कीकी तरफ़से तो पूजे ।’’
‘‘पर लड़कीने तो उसे देखा भी नहीं ?’’
‘‘लड़कियाँ नहीं देखतीं ।’’
‘‘लड़कियाँ अपने होने वाला ख़ाविन्दको नहीं देखतीं ।’’
‘‘ना’’
‘‘कोई भी लड़की नहीं देखती ?’’
‘‘ना’’
पहले तो अंगूरी ने ‘ना’ कर दी पर फिर कुछ सोच-सोचकर कहने लगी, ‘‘जो लड़कियाँ प्रेम करती हैं, वे देखती हैं ।’’
‘‘तुम्हारे गाँवमें लड़कियाँ प्रेम करती हैं ?’’
‘‘कोई-कोई’’
‘‘जो प्रेम करती हैं, उनको पाप नहीं लगता ?’’ मुझे असलमें अंगूरी की वह बात स्मरण हो आयी थी कि औरतको पढ़ने से पाप लगता है ।इसलिए मैंने सोचाकि उस हिसाबसे प्रेम करनेसे भी पाप लगता होगा ।
‘‘पाप लगता है, बड़ा पाप लगता है ।’’ अंगूरीने जल्दी से कहा ।
‘‘अगर पाप लगता है तो फिर वे क्यों प्रेम करती हैं ?’’
‘‘जे तो…बात यह होती है कि कोई आदमी जब किसीकी छोकरीको कुछ खिला देता है तो वह उससे प्रेम करने लग जाती है ।’’
‘‘कोई क्या खिला देता है उसको ?’’

‘‘एक जंगली बूटी होती है ।बस वही पानमें डालकर या मिठाईमें डालकर खिला देता है । छोकरी उससे प्रेम करने लग जाती है ।फिर उसे वही अच्छा लगता है, दुनियाका और कुछ भी अच्छा नहीं लगता ।’’
‘‘सच ?’’
‘‘मैं जानती हूँ, मैंने अपनी आँखों से देखा है ।’’

‘‘किसे देखा था ?’’
‘‘मेरी एक सखी थी । इत्ती बड़ी थी मेरे से ।’
‘‘फिर ?’’
‘‘फिर क्या ? वह तो पागल हो गयी उसके पीछे । सहर चली गयी उसके साथ ।’’

‘‘यह तुम्हें कैसे मालूम है कि तेरी सखीको उसने बूटी खिलाई थी ?’’
‘‘बरफीमें डालकर खिलाई थी । और नहीं तो क्या, वह ऐसे ही अपने माँ-बापको छोड़कर चली जाती ? वह उसको बहुत चीज़ें लाकर देता था ।सहरसे धोती लाता था, चूड़ियाँ भी लाता था शीशेकी, और मोतियोंकी माला भी ।’’
‘‘ये तो चीज़ें हुईं न ! पर यह तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि उसने जंगली बूटी खिलाई थी !’’
‘‘नहीं खिलाई थी तो फिर वह उसको प्रेम क्यों करने लग गयी ?’’
‘‘प्रेम तो यों भी हो जाता है।’’ ‘‘नहीं, ऐसे नहीं होता । जिससे माँ-बाप बुरा मान जाएँ, भला उससे प्रेम कैसे हो सकता है ?’’
‘‘तूने वह जंगली बूटी देखी है ?’’
‘‘मैंने नहीं देखी । वो तो बड़ी दूरसे लाते हैं । फिर छिपाकर मिठाईमें डाल देते हैं, या पानमें डाल देते हैं । मेरी माँ ने तो पहलेही बता दिया था कि किसीके हाथसे मिठाई नहीं खाना ।’’ ‘‘तूने बहुत अच्छा किया कि किसीके हाथसे मिठाई नहीं खाई ।पर तेरी उस सखीने कैसे खाली ?’’
‘‘अपना किया पाएगी’’
‘‘किया पाएगी’’ कहनेको तो अंगूरीने कह दिया पर फिर शायद उसे सहेलीका स्नेह याद आ गया या तरस आ गया, दुखेमन से कहने लगी, ‘‘बावरी हो गई थी बेचारी ! बालों में कंघी भी नहीं लगाती थी । रातको उठ-उठकर गाती थी ।’’
‘‘क्या गाती थी ?’’
‘‘पता नहीं, क्या गाती थी । जो कोई जड़ीबूटी खा लेती है, बहुत गाती है । रोती भी बहुत है ।’’
बात गानेसे रोने पर आ पहुँची थी । इसलिए मैंने अंगूरी से और कुछ न पूछा ।

और अब थोड़े ही दिनों की बात है ।एक दिन अंगूरी नीमके पेड़के नीचे चुपचाप मेरे पास आखड़ी हुई । पहले जब अंगूरी आया करती थी तो छन-छन करती, बीस गज़ दूरसे ही उसके आनेकी आवाज़ सुनाई दे जाती थी, पर आज उसके पैरोंकी झाँझरें पता नहीं कहाँ खोयी हुई थीं ।मैंने किताब से सिर उठाया और पूछा, ‘‘क्या बात है, अंगूरी ?’’
अंगूरी पहले कितनी ही देर मेरी ओर देखती रही और फिर धीरेसे बोली “मुझे पढना सीखा दो बीबीजी”… और चुपचाप फिर मेरी आँखोंमें देखने लगी…
लगता है इसने भी जंगली बूटी खाली…

“क्यूँ अब तुम्हे पाप नहीं लगेगा, अंगूरी”… यह दोपहरकी बात थी शामको जब मैं बाहर आई तो वह वहीं नीमके पेड़ के नीचे बैठी थी और उसके होंठो पर गीत था पर बिलकुल सिसकी जैसा…मेरी मुंदरी में लागो न गीन्वा, हो बैरी कैसे काटूँ जोबनावा ..अंगूरीने मेरे पैरोंकी आहट सुनली और चुप हो गयी…

“तुम तो बहुत मीठा गाती हो… आगे सुनाओ न गाकर”

अंगूरीने आपने कांपते आंसू वही पलकों मेंरो कलिए और उदास लफ़्ज़ों में बोली “मुझे गाना नहीं आता है”
“आता तो है”
“यह तो मेरी सखी गाती थी उसी से सुना था”
“अच्छा मुझे भी सुना ओ पूरा”

“ऐसे ही गिनती है बरस की… चार महीने ठंडी होती है, चार महीने गर्मी और चार महीने बरखा”… और उसने बारह महीनेका हिसाब ऐसे गिना दिया जैसे वह अपनी उँगलियों पर कुछ गिन रही हो…

“अंगूरी?”

और वह एक टक मेरे चेहरेकी तरफ देखने लगी… मनमैं आयाकी पूछूँकी कहीं तुमने जंगली बूटी तो नहीं खाली है… पर पूछा की “तुमने रोटी खाई?”
“अभी नहीं”
“सवेरे बनाई थी ? चाय पी तुने ?”
“चाय? आज तो दूध ही नहीं लिया”

“क्यों नहीं लिया दूध ?”

“दूध तो वह राम तारा…”
वह हमारे मोहल्लेका चौकीदार था, पहले वह हमसे चाय लेकर पीता था पर जबसे अंगूरी आई थी वह सवेरे कहीं से दूध लेआता था, अंगूरीके चूल्हे पर गर्म करके चाय बनाता और अंगूरी, प्रभाती और रामतारा तीनो मिलकर चाय पीते… और तभी याद आयाकी रामतारा तो तीन दिनसे अपने गांव गया हुआ है । मुझे दुखी हुई हंसी आई और कहा कि क्या तूने तीन दिनसे चाय नही पी है ?

“ना”

“और रोटी भी नहीं खायी है न”
अंगूरीसे कुछ बोला न गया… बस आँखोंमें उदासी भरे वही खड़ी रही…

मेरी आँखोंके सामने रामतारे की आकृति घूम गयी… बड़ेफुर्तीले हाथ पांव, अच्छा बोलने, पहनने कासली का था ।
“अंगूरी… कहीं जंगली बूटी तो नहीं खाली तूने ?”

अंगूरीके आंसू बह निकले और गीले अक्षरोंसे बोली मैंने तो सिर्फ चाय पी थी… कसम लगे न कभी उसके हाथसे पान खाया, नमिठाई… सिर्फ चाय… जाने उसने चाय में ही… और अंगूरीकी बाकी आवाज़ आंसुओ में डूब गयी ।