कितनी पावन
ख्याति प्रेम की
जो सजाती एक उत्सव
क्यारियों में ।
नेह का, अपनत्व का
हिमाच्छादित चोटियों- सा
शीतल और
उच्च ! एक भव्य उत्सव ।
तुम्हारा आना
मिलना-मिलाना
बैठना, इठलाना
अचानक चहकना,
खिलखिलाना
करना अनुपम नाद भी
और फिर दूजे ही पल
ओढ लेना
झीनी चादर मौन की ।
एक दस्तूर सा लगने लगा है,
तुम्हारा नजरें झुकाकर देखना ।
सुनियोजित, सुनिश्चित
जनता हूँ मैं,
वह सायास था, अनायास नहीं ।
साभार: अनेक पल और मैं
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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)