समाचार

कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमगना वों में बैठकर
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति !
कभी कुहासे में तुम्हें नदेखता भी
पर कुहासेकी ही छोटी-सीरु पहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल ।
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत-
ओ मेरे अनबुझे सत्य ! कितनीबार…
और कितनी बार कितने जगमग जहाज़
मुझे खींचकर ले गये हैं कितनी दूर
किन पराए देशोंकी बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अंधेरोंको
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश-
जिसमें कोई प्रभा-मंडल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं तथ्य, तथ्य- तथ्य-
सत्य नहीं, अंतहीन सच्चाइयाँ…
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त-
कितनी बार !
अज्ञय