• २०८१ असोज २४ बिहीबार

अवचेतना

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

चाहे–अनचाहे
मेरे मानस की स्मृतियाँ
धुँधली हो रही हैं
काल मिटा रहा है निशान
कैसे रोकूँ इस काल की चाल ।
उद्दण्ड मानता ही नहीं कोई मानक
बेलगाम यह घमण्डी मन
काल के बन्धन से स्वतन्त्र
स्वछन्द सोच का धारक ।

क्या मन्थर पडतीं स्मृतियाँ
क्षीण होती सोच का है अनुवाद
क्या भोर की नव किरणें
अन्धकार का अन्त करने
रवि की हैं प्रचारक ?

प्रश्न तो है
काल का बहाव में
जीवन चढाव में
हृदय की वेदना
अशान्त चेतना
इठलाती
संवर्धित अवचेतना !

साभार: अनेक पल और मैं


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)