• २०८० जेठ १४ आइतबार

रंगों के आइने में मिथिला के सरगम

धीरेन्द्र प्रेमर्षि

धीरेन्द्र प्रेमर्षि

अनुभूति व मनस्थिति को आकार देने वाला एक विलक्षण तत्त्व है रंग । रंगों का हमारे जीवन में इतना महत्त्व है कि हम इसका उत्सव ही मनाया करते हैं । होली रंगों का एक ऐसा ही उत्सव है जिसके माध्यम से हम मन के कलुष को धोकर जीवन में प्रेम व उमंग का संचार किया करते हैं । रंग और इसके उत्सव का प्रभाव कमोवेश इसी रूप में नेपाल व भारत के हर हिंदू धर्मावलंबियो में पाया जाता है । वैसे रंग तो सर्वव्यापक है और इसका वैशिष्ट्य भी धर्म निरपेक्ष है किंतु उत्सवीकरण के जरिए खासखास चीजों पर अपना विशेषाधिकार जतलाना मानवीय विशेषता है ।

इस आलेख में हम चर्चा कर रहे हैं रंग-उत्सव के उमंग को ध्वनि तरंग में अनुवाद कर मन मतंग करने वाले होली के संगीत की । वैसे तो होली समस्त भारतवर्ष में आनन्द उत्सव के रूप में मनाया जाता है, लेकिन जब कभी भी हम इसकी पारंपरिक विशिष्टताओं पर नजर डालते हैं तो ब्रज, अवध, मिथिला की होली विशेष रूप से उभर कर सामने आती हैं । इस आलेख में हम मिथिला की होली से संबद्ध सांगीतिक पक्षों पर प्रकाश डालते हैं ।

मिथिला एक ऐसा भूगोल है जो फिलहाल किसी राजनीतिक व प्रशासनिक इकाई के रूप में नहीं है, लेकिन संस्कृति, संस्कार व संज्ञानता के मनप्रांत में जीवंत है । मनप्रांत की यह विस्तृति ऐसी है जो किसी तरह की सीमाओं से उपर है । यहां का अपना पर्व-त्यौहार है, अपनी जीवन पद्धति है, अपना पञ्चाङ्ग है, अपनी सांस्कृतिक परंपरा है, अपने गीत-संगीत, साहित्य, भाषा व लिपि हैं । नेपाल के संदर्भ में नेपाली के बाद सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने भाषा मैथिली को आधार देने वाला भूखंड है । और विदेह जनकों ने जिस सभ्यता का नींव डाला, उसका अवशेष है मिथिला । यह वह धरती है जहां जगज्जननी जानकी का प्राकट्य हुआ था ।

मिथिला के जनजीवन से संगीत का गहरा नाता है । राष्ट्रकवि माधव प्रसाद घिमिरे जब तब कहा करते थे- मैथिली गीतों की भाषा है । मैथिली साहित्य में गीतों के स्थान के बारे में सुप्रसिद्ध गीतकार सियाराम झा ‘सरस’ का कहना है, “गीत मैथिली साहित्य का हृदय है । मैथिली में चाहे जितने प्रकार के साहित्य रचे जाते हों, सभी की अपनी विशेषताएं व स्थान हैं, परंतु मैथिली साहित्य से अगर हम गीत को निकाल देते हैं तो फिर इसका ‘हर्ट फेल’ हो जाएगा ।” कमोबेस ऐसी अवस्था है भी । और इस अवस्था का कारण है- मैथिल जनमानस में सांगीतिक उपक्रमों की व्यापकता व अपरिहार्यता । एक पारम्परिक मिथिलावासी के घर में जन्म से लेकर शोक तक की अवस्था में कोई ऐसा क्षण नहीं है जिसके लिए गीत निर्दिष्ट न हो । अलग-अलग मनोभावों के अलग-अलग गीत; अलग-अलग समय, मास, ऋतु, संस्कारों व त्यौहारों के अलग-अलग गीत । जैसे गीतों के आधार पर ही वहां का जीवन चलता हो । शायद इसी संगीतमयता के कारण ध्वनिशास्त्रियों की नजर में मैथिली का स्थान एक मधुरतम भाषा के रूप में है ।

ऐसी संगीतमय भाषा मैथिली में रंग-उमंग का त्यौहार होली भला गीतों से सराबोर क्यूं न हो ! मिथिला में होली का संगीतमय माहौल वसंत पंचमी के दिन से ही शुरू हो जाता है । होली के सांगीतिक चित्र मिथिला में सान्यतया तीन तरह के कैनवास पर बनते देखे जाते हैं-
१. महिलाओं द्वारा गाये जाने वाले होली गीत
२. गृहस्थों द्वारा गाये जाने वाले होली गीत
३. संगीतकर्मियों द्वारा गाये जाने वाले होली गीत

१. महिलाओं द्वारा गाये जाने वाले होली गीतः घरायसी संस्कारों व अनुष्ठानों में महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले गीतों की अविच्छिन्न परम्परा में होली गीत का भी विशेष स्थान है । यथार्थतः मिथिला में संगीत सहित हर तरह की कला को अपने दिनचर्या के रूप में आत्मसात कर उसे निरंतरता देने का भार महिलाएं ही उठाती आयी हैं । गीतों का सामूहिक गायन- प्राती, सांध्यगीत, बरहमासा या ऋतुगीत; सभी में चलता ही रहता है । सत्यनारायण भगवान् की पूजा से लेकर विवाह, मुंडन, ब्रतबन्ध आदि सांस्कारिक कर्मों में भी गायन एक प्रमुख अंग के रूप में रहता है । लेकिन वसंत पंचमी से लेकर होली तक के समय में मिथिलावासियों के घर में चाहे सत्यनारायण भगवान् की पूजा हो चाहे शादी-ब्याह, इस में गाये जाने वाले गीतों में होली का गीत अवश्य शामिल रहता है । फागुन के महीने में होने वाली शादी के उपरांत की विधियों में खासकर बटगवनी/बटगमनी के तहत महिलाओं द्वारा फाग गाया ही जाता है । इन गीतों को महीन ढंग से देखने-सुनने पर ऐसा प्रतीत होता है मानों नवविवाहितों के प्रेम को प्रोत्साहित किया जा रहा हो-
यमुना तट श्याम खेलए होरी
कसि-कसि श्याम मारत पिचकारी,
राधा-कृष्ण खेलत होरी
परदेश वास मिथिला के संदर्भ में एक पीडादायी सत्य है । मिथिला के पुरुष सुदूर काल से ही काम के लिए मोरंग जाया करते थे । समय क्रम में मोरंग का स्थान कोलकाता, पंजाब, दिल्ली लेता गया । और आजकल खास कर नेपाल में रहे मिथिला भूभाग के पुरुष रोजीरोटी के लिए कतार, मलेसिया, अरब आदि देशों में जाने लगे हैं । ऐसे में परदेशी पिया का बाट जोहना मिथिला की नारी की सार्वकालिक नियति रही है । और होली एक ऐसा त्यौहार है जिसमें सारे परदेशियों की कोशिश रहती है कि वे होली मनाने घर आएं । परदेशी आ पाये या न आ पाये, लेकिन घर में तो उसकी प्रतीक्षा रहती ही है और पति के सत्कार के लिए घर में तैयारियां शुरू हो जाती हैं । इस मनोभाव व तैयारी का चित्रण मिथिला के होली गीत में बड़े सुंदर ढंग से पाया जाता है-
परदेशिया लए धोतिया रंगाबे गोरिया
जब परदेशिया नगर बीच आएल
सिकिया से अंगना बहारै गोरिया
जब परदेशिया दुआरे बीच आएल
झटझट पुअबा छनाबै गोरिया
जब परदेशिया अंगने बीच आएल
पलंगा सेजरिया सजाबै गोरिया
महिलाएं होली तक के अन्य अवसरों पर भले ही होली गीतों का भरपूर प्रयोग करती हों, किंतु निज होली के दिन महिलाओं का होली गान होते देखा- सुना नहीं गया है । उस दिन रंगों से पहले ईष्ट की पूजा फिर अपनों में रंग-अवीर खेलने के कामों में ही इनकी सक्रियता देखी जाती है । उसके आगे की सक्रियता होती है- होली में मगन अपने बच्चों व परिजनों के लिए होली के सुस्वादु ब्यंजनो की तैयारी । परंतु गृहस्थों का होली गान बहुआयामिक होता है ।

२. गृहस्थों द्वारा गाये जाने वाले होली गीतः वसंत पंचमी के बाद से ही हरेक शाम को रात्रिविश्राम से पूर्व गृहस्थों द्वारा किसी सार्वजनिक दालान पर जमा होकर डम्फ, मंजीरा, ढोलक, झाल आदि वाद्ययंत्रों के साथ होली की महफिल सजायी जाती है । गांवघर में होने वाले नियमित कीर्तनों में भी इस कालखंड में होली के गीतों की प्रधानता रहती है । हालांकि होली कहते ही आजकल मन में जिस तरह के गाने ‘भिजुओलाइज’ हो जाते हैं वो तो छेड़छाड़ वाले देवर-भाभी के रिश्तों की कुछ अलग ही नजरिया देने वाले या दो अर्थी शब्द वाले जोगीड़ा होते हैं, परंतु गृहस्थों के होली गान मुख्य होली वाले दिन को छोड़कर प्रायः धार्मिक व जीवन जगत् की बातों को लेकर आगे बढ़ता है । इसमें भी जगज्जननी जानकी को अपनी बहन- बेटी की तरह मानने वाले या किशोरी नाम से संबोधित करने वाले मिथिला वासी के धार्मिक व सांस्कृतिक आयोजनों में भी सिया- राम तत्त्व का आधिक्य पाया जाता है । इसीलिए गृहस्थों के सांध्य जमावड़े के साथ होने वाले होली गायन में भी सीता के जीवन की विविध पहलुओं को समेट कर होली का गायन भी शुरू होता है । हालांकि कई जगह भगवती वंदन से होली के गीतों की भी शुरुआत होती है किंतु ज्यादातर लोग धनुष-यज्ञ के प्रसंग से यह शुरू करते हैं-
राजा जनक कठिन प्रण ठानै
द्वार धनुषिया रखाबै हो
देश हो देशके वीरसब आबै
मिथिला गह-गह मचाबै हो
जनक जी की आकुलता, प्रण और प्रसन्नता की गाथा परोसने के बाद जनकपुर के लिए अयोध्या से जो बारात सजती है, उसकी भव्यता का भी चित्रण होने लगता है होली के गीतों में-
रामजी बिआहन जनकपुर चललै
दशरथ साजे बरियात हो
कए लाख हाथी कए लाख घोड़ा
कए लाख साजे बरियात हो
एक लाख हाथी सवा लाख घोड़ा
लाख-लाख साजे बरियात हो
इस तरह वसंत पंचमी से होली तक चलने वाले संध्याकालीन जमघट में निरंतर होली के गीतों का गायन चलता रहता है- पूर्ण रूप से एक पद्धति में बंधकर । हर दिन के गायन का समापन होता है महादेवी से-
शिवके मन मोह बसैए काशी
अदहा काशीमे ब्राह्मन बासी
अदहा काशीमे संन्यासी

३. संगीतकर्मियों द्वारा गाये जाने वाली होली गीतः गायक-गायिकाओं द्वारा मंच पर प्रस्तुत किए जाने वाले कार्यक्रमों में वसंत पंचमी से होली तक के दौरान होली गीतों का बोलबाला रहता है । इनमें मिथिला की पारंपरिक होली गीत तो समाविष्ट रहते ही हैं, साथ में आधुनिक होली गीत भी गाये जाते हैं । ऐसे गायक- गायिकाओं के होली स्पेशल कैसेट एलबम भी निकलते हैं । मंच व कैसेटों में आने वाले होली गीतों में उस तरह के भोजपुरी होली गीतों की नकल की कोशिश भी रहती है जिसके माध्यम से अश्लीलता परोसी जाती है । लेकिन मैथिली भाषा ऐसे शब्दों को सौन्दर्य नहीं प्रदान कर पाता । या यूं कहें- मैथिली में अश्लीलता वाले गीत चल नहीं पाते । मिथिला क्षेत्र में भी भोजपुरी के उस तरह के गीत तो बजते व गायकों द्वारा गाए जाते हैं, परंतु मैथिली में जब उसे ढालने की कोशिश करते हैं तो लगता है कि मैथिली के शब्दों में अश्लीलता ‘डाइल्यूट’ नहीं हो पाती । इसलिए आधुनिक गीत भी अक्सर स्वस्थ मनोरंजन में ही सीमित रहते हैं-
होरी में गोरी
हे दखही आरौ तोरी
मचाबै हुड़दंग रे
होरीमे करब बलजोरी
खोलि देबै अवीरक बोरी
रंगरसिया जगाबे अधरतिया
बुझे ने एको बतिया
केहन अवढंग रे
या फिर पारंपरिक शैली में ही कुछ आधुनिक संदर्भों को जोड़कर गा उठते हैं-
खोपा बान्हिकऽ गे भौजी सिनेमा देखऽ चल
खोपा बान्हिकऽ
समधानिकऽ गे भौजी सिनेमा देखऽ चल
समधानिकऽ

समग्र में होली प्रेम व आनन्द का त्यौहार है । मनोरंजन भलेही इसका आवरण हो, परंतु मिथिला में इस के अन्तर्य में भी लोककल्याण व भ्रातृत्व का भाव ही पाया जाता है । खासकर गृहस्थ समुदाय जो वसंत पंचमी से होली गाते रहते हैं, वे निज होली के दिन घर-घर जाकर होली-जोगिड़ा गाया करते हैं । इस दौरान हर तरह के भाव- भंगिमा वाले होली गीत गाये जाते हैं । लेकिन होली जैसे उल्लास के त्यौहार में भी मोक्ष व प्रेम की बातें मिथिला की होली की विशेषता रही है-
जिनगीके कोन ठेकान
गलासे गला मिला लए
एतह जमराज पकड़िकऽ लऽ जएतह
बुझतह ने बूढ़-जुआन
गलासे गला मिला लए
जब यह होलैता मंडली लोगों के घर-घर जाती है तो उस घर में आनन्द की कामना करते हुए गाती है-
सदा आनन्द रहे एही द्वारे,
मोहन खेले होरी हो
एक ओर खेले कुँवर कन्हैया
एक ओर राधा गोरी हो
इस तरह नितांत व्यक्तिगत उल्लास व आनन्द के त्यौहार भी सर्वमंगल की भावना के साथ खेले जाने पर ही इसका वास्तविक आनन्द आने का संदेश देते हुए मिथिला में होली संसार को आनन्द का व्यंजन परोसने की कामना लिए आती है और प्रेम के रंग में सभी को सरावोर कर विदा होती है ।