• २०८१ असोज २९ मङ्गलबार

बसंत गीत

प्रो.डा. प्रतिभा राजहंस

प्रो.डा. प्रतिभा राजहंस

कौन उर में गा रहा है
सघन स्वप्न सजा रहा है
लालसा के बादलों में
कौन लुक- छिप आ रहा है

कौन उर में गा रहा है
कौन उर में गा रहा है

इंद्रधनु- सा रंग रंगीला
कौन मन में छा रहा है
चाहतों के मेह बरसे
शुष्क तन उल्लसित सरसे
कौन मेरी धमनियों में
बह मुझे बहा रहा है

कौन उर में गा रहा है
कौन उर में गा रहा है

यह बसंती ऋृतु नयी है
मन क्यों बहका जा रहा है
रुत ये कैसी रूप कैसा
किस तरह मन भा रहा है

कौन मन में गा रहा है
कौन मन में गा रहा है

उर में मिलने की अगन है
मन में गलने की लगन है
अब वह बेला आ गई है
आज ही अपना मिलन है

कौन मन में गा रहा है
कौन मन में गा रहा है

तुम मिली हो सब मिला है
फिर कहो यह क्या गिला है
मैं यहां क्यों तुम वहां हो
पूछता मन जा रहा है

कौन मन में गा रहा है
कौन मन में गा रहा है

देख लो दिल तुझ बिना यूँ
फिर मचलता जा रहा है
मधुमास का चंचल पवन यह
तन में सिहरन भर रहा है
थकित मैं अवलंब ढूंढूँ
चकित मन पगला रहा है

कौन उर में गा रहा है
कौन उर में गा रहा है

आम में हैं बोर फूटे
श्याम अलि मकरंद लूटे
यूं अलस दिन चैन लूटे
धैर्य धन सब आज झूठे
पी कहां अब आज फिर से
मन पपीहा गा रहा है

कौन उर में गा रहा है
कौन उर में गा रहा है

रुत ये मधु की आ गई है
रंग रंगीनी छा गई है
प्रीत उर अंदर बसा जो
गाना मधुमय गा रहा है

कौन उर में गा रहा है
कौन उर में गा रहा है ।


(प्राध्यापन, मारवाडी महाविद्यालय, तिलकामाँझी विश्वविद्यालय, भागलपुर भारत)
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