कविता

मुत्ताहिद ज़ात भी नहीं होती
तुम से फिर बात भी नहीं होती
एक ज़माना था रोज़ मिलते थे
अब मुलाक़ात भी नहीं होती
शिद्दत ए प्यास से तड़पते लब
और बरसात भी नहीं होती
दिन तो हंगामा ए जोनूं ठेहरा
पुर सोकूं रात भी नहीं होती
मैं तो मजबूर अपने आप से हूं
तर्क ए हफवात भी नहीं होती
जान लो दोस्ती में ऐ साकिब
हम से यूं घात भी नहीं होती
डा. साकिब हारूनी (काठमाडौँ)
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