हिन्दी कविता

जग में सेवा करने वाले,
ही महान बन पाए हैं ।
मानो सेवा की खातिर ही,
वह धरती पर आये हैं ।
मानव सेवा से बढकर,
तो कोई कर्म नहीं है ।
मानवता से बढ़कर जग में,
कोई धर्म नहीं है ।
सेवा का है धर्म निराला,
करो वतन की तुम सेवा ।
धरती मां की सेवा कर लो,
करो गगन की तुम सेवा ।
कितने कंटक राह मिलें पर,
सेवा से घबराना ना।
यही कर्म है यही धर्म है,
पीछे तुम हट जाना ना ।
मात पिता औ गुरु की सेवा,
सब संताप मिटाती है ।
सेवा बिन सारी पूजा भी,
निष्फल ही हो जाती है ।
युगों युगों से गौ सेवा का,
सुंदर नियम विधान रहा।
देव ,मनुज अरु मुनियों ने भी,
गौ सेवा को धर्म कहा ।
वृक्षों की सेवा से लेकर,
पशुओं तक की सेवा को।
धर्म समझकर मीत निभाओ,
पा जाओगे मेवा को ।
सास ससुर और पति की सेवा,
सती सावित्री ने जब की।
काल देव भी कांप उठे तब,
बदला विधि का नियम तभी ।
लक्ष्मण की सेवा से सीखो,
सीखो श्रवण कुमार से ।
एकलव्य की सी गुरु सेवा,
सीखो कुछ संसार से ।
सुषमा दिक्षित शुक्ला, लखनऊ भारत
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